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________________ आचार्य भिक्षु में कोई त्रुटियां निकालता, तो वे उस पर रोष नहीं करते। बल्कि यह कहते कि बहुत अच्छा हुआ, मेरे अवगुण कुछ मैं निकाल लूंगा, कुछ दूसरे निकाल देंगे; मैं तो पवित्र बन जाऊँगा। एक बार आचार्य भिक्षु पहाड़ की तलहटी में बैठे विश्राम कर रहे थे। एक व्यक्ति उधर से निकला । साधुओं को देखते ही उसने पूछा, "आप कौन हैं ?" स्वामी जी ने कहा, "भाई, लोग मुझे भीखण कहते हैं ।" भीखण नाम सुनते ही वह तिलमिला उठा। ललाट पर त्रिवली अंकित हो गयी और एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोला, "आज तो अनर्थ हो गया।" "क्यों भाई, ऐसा क्या हो गया ?" आश्चर्य के स्वर में स्वामीजी ने पूछा । "तुम्हारा मुंह जो दीख गया।" "मेरा मुंह देखने से ऐसा क्या अनर्थ ?" स्वामीजी के इन शब्दों ने अग्नि में घृत का काम किया। वह आग-बबूला होता हुआ बोला-"तुम्हारा मुंह देखने वाले को नरक जाना पड़ता है नरक ।" स्वामीजी मन ही मन मुस्कराए और बोले -- "मैं तो यह नहीं मानता कि किसी का मुंह देखने मात्र से नरक या स्वर्ग मिलता है, पर तुम्हारी यदि यह धारणा है, तो जरा मुझे यह बता दो कि तुम्हारा मुंह देखने वाला कहाँ जायेगा ?" बिना विचारे ही वह व्यक्ति तपाक से बोला, “स्वर्ग में।" स्वामीजी ने विनोद के साथ कहा, "तब तो तुम मेरे बहुत बड़े उपकारी हो । स्वयं के लिये नरक तैयार करके भी मुझे स्वर्ग भेज रहे हो।" यह है महान् व्यक्तियों की महत्ता जो बुराई में भी अच्छाई को ढूंढ निकालती है । जो महान होते हैं, वे शत्रु के भी उद्धार की ही कामना करते हैं। संगम देव ने भगवान महावीर को एक रात में अनेक मारणांतिक कष्ट दिए, पर महावीर का मानस तो उसके प्रति करूणाशील ही बना रहा । यह है सर्वोच्च मैत्री का विकास । मैत्री का विकास होने पर क्रोध, आवेश, ईर्ष्या आदि बुराइयाँ स्वत: समाप्त हो जाती हैं । मैत्री साधना का प्रथम चरण है। मैत्री की भव्य भित्ति पर ही साधना का महल खड़ा हो सकता है। -0.. खण्ड ४, अंक ३-४ १९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524516
Book TitleTulsi Prajna 1978 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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