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________________ जी के दिमाग में आई। उनको उस समय हाथी नहीं मिल रहे थे। सब जगह ढूँढते ढूँढते थक गए थे। सेठ भागचन्द जी ने सर्कस वालों से पूछा- तुम्हारे पास कोई ताम-झाम है कि नहीं, कुछ हाथी घोड़े हैं कि नहीं? उन्होंने कहा- हमारे पास ७-८ हाथी और कुछ घोड़े भी हैं। सेठजी ने कहा- पहले ये हाथी हमें दो । कल यहाँ पर बहुत बड़ी दीक्षा होनेवाली है एक २०-२१ साल के युवा की जिस युवा की दीक्षा में वहाँ के रहनेवाले लोगों ने भी विरोध किया था कि देखो महाराजआप इतनी जल्दी इस युवा को दीक्षा मत दो, पहले थोड़ा सा और परख लो, लेकिन वो ज्ञानसागर जी महाराज ऐसे पारखी थे कि उन्होंने समाज की कुछ नहीं मानी और उन्होंने कहा- इनकी दीक्षा होगी, जो निश्चित समय है उस निश्चित समय पर होगी। तुम अपना काम करो, दीक्षा देना हमारा काम है, दीक्षा ग्रहण करना उसका काम है। अगर तुम लोग कुछ ज्यादा बोलोगे, तो हम इतनी भी सामर्थ्य रखते हैं कि किसी भी मंदिर में जाकर दीक्षा दे सकते हैं। जब उनकी यह बात और दृढ़ता देखी तो सेठ भागचन्द्र जी सोनी और जितने भी समाज के लोग थे सब चरणों में नतमस्तक हो गए बोले कि महाराज यह दीक्षा बहुत ही हर्षोल्लास से मनेगी। उनका यह पुण्य देखो, जिन हाथियों को ढूँढने के लिये दूर दूर तक लोग पहुँचाये थे, वो पुण्य उनका इतने पास में था कि वह खुद आकर के कहने लगा कि हम भूमि देने को तैयार हैं। कल तुम हाथियों को अच्छे से सजाकर ले आओ। जब विद्याधर की दीक्षा के लिए बिनौली निकाली गई, तो बताते हैं कि शहर में ऐसी सज्जा और इतना भव्य आयोजन न कभी हुआ और न कभी हो पायेगा। जब उनके दीक्षा संस्कार का समय आया तब मुनिराज ने इनके ऊपर संस्कार किये। उस समय राजस्थान में आषाढ़ मास में पंचमी के दिन भीषण गर्मी थी, बहुत समय से पानी भी नहीं बरसा था । गरम गरम लू चल रही थी, रेगिस्तानी एरिया होने के कारण लू . के साथ - साथ गरम-गरम बालू के कण भी उचटउचट कर आते थे। बहुत भीषण गर्मी थी पानी के बादल दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे थे जैसे ही विद्याधर ने अपने वस्त्र उतारकर फेंके, तभी उस स्थान पर बादल का एक टुकड़ा आया और झम-झम वर्षा होने लगी। सभी आश्चर्य में पड़ गए कि इंद्र देवता कहाँ से आ Jain Education International गए? यह हमारी श्रद्धा और भक्ति ही है कि हम उनके जीवन की प्रत्येक चर्या को अतिशय के रूप में देख सकते हैं। ज्ञान का अशितय दीक्षा के बाद गुरु महाराज से ज्ञान अर्जन का कार्य निरंतर चलता रहा। कुछ समय बाद गुरु महाराज का देहावसान हो गया। उससे पहले गुरु महाराज के द्वारा इनको आचार्यपद पर आसीन किया गया। दो-तीन वर्ष बाद उनके पास समाज के कुछ वरिष्ठ विद्वान जो मुनि के कभी दर्शन करना पसंद नहीं करते थे और कहते थे कि पंचमकाल में मुनि होते ही नहीं हैं। आपने नाम सुना होगा वह विद्वान थे- पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री । जिन्होंने बड़े-बड़े ग्रंथों की टीकायें आदि की हैं, तथा धवला आदि ग्रंथों और अनेक ग्रंथों का संपादन किया है। मूलचंद जी लुहाड़िया जो आचार्यश्री के पास आज भी आते हैं और उस समय भी आते थे। इन्होंने कैलाशचन्द जी से कहा कि यहाँ किशनगढ़ में एक मुनि महाराज विराजमान हैं, जिनका एक बार आप दर्शन करने आ जाओ। लेकिन वो आना नहीं चाह रहे थे, वे कह रहे थे । मुझे नहीं आना है, मुझे बिलकुल भी श्रद्धा नहीं हैं । जैनधर्म का प्रकाण्ड विद्वान् कह रहा है ऐसा कोई मुनि आजकल हो ही नहीं सकता। एक बार पण्डित कैलाशचन्द जी को जबर्दस्ती बुलाया गया किशनगढ़ में। उन्होंने लुहाड़िया जी से कहा- मैं सिर्फ दो घंटे के लिए आ रहा हूँ। इससे अधिक मेरा समय खराब मत करना। आपके आग्रह पर आ रहा हूँ, बहुत दिनों से आपका आग्रह था। वे आए और आचार्यश्री के चरणों में नमोस्तु करके बैठ गए। आचार्य महाराज अपना स्वाध्याय करते रहे जो कार्य कर रहे थे वो करते रहे। उन्होंने नहीं देखा कि बहुत बड़े पण्डित जी आए हैं और नहीं देखेंगे तो पण्डित जी का अपमान हो जाएगा। आचार्य महाराज अपना स्वाध्याय करते रहे, जब स्वाध्याय पूर्ण हो गया तो देखा कि सामने दो पण्डित जी बैठे हैं । तब लुहाड़िया जी ने कहा कि ये जैनजगत के वरिष्ठ विद्वान् हैं पण्डित कैलाशचन्द जी शास्त्री । आपके दर्शन हेतु आए हैं। आचार्यश्री ने कहा- ठीक है 'ऊँ नमः' आशीर्वाद और वह उठ करके अपनी चर्या के लिए चले गए। उन दो घण्टों में उस व्यक्ति ने उनके व्यक्तित्व को इस तरह निहारा कि वह व्यक्ति उस शहर में पण्डित जी For Private & Personal Use Only 'नवम्बर 2009 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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