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________________ के पास ३ दिन तक रुका। जो केवल दो घंटे के लिए | निर्वाण का अतिशय उनके दर्शन करने आया था, वो उन आचार्य महाराज चार कल्याण जैसे महापुरुष के अतिशय तो हो की चर्या से इतना प्रभावित हुआ कि ३ दिन उनके | गए, अब आगे की बात हम नहीं करेंगे। हम तो यह पास बैठ करके, शंका- समाधान करके ही वापिस गया। | चाह रहे हैं कि आचार्य महाराज का निर्वाण कभी हो हम समझते हैं कि यह ज्ञान का ही अतिशय है। ललितपुर, ही नहीं। क्या कहना उनकी साधना और आराधना का? जबलपुर सागर आदि स्थानों में आचार्यश्री के सान्निध्य | कभी-कभी ऐसे भाव आ जाते हैं, भक्तिवश आ जाते में सब पण्डितों के सामने बड़ी-बड़ी वाचनायें हुई हैं। | हैं, मूर्खतावश आ जाते हैं। आप भी उसको मूर्खतावश उन वाचनाओं को देखने का हमको तो सौभाग्य नहीं | ही समझ लेना। जैसे आप लोग कहते हो अपने बेटों मिला, लेकिन जब पढ़ा सुना और फोटो आदि भी देखे, | से कि हमारी उम्र भी तुम्हें लग जाए। ऐसा भी कभीजिनमें पचासों विद्वान् एक साथ बैठे हैं और षट्खण्डागम | कभी भाव आता है कि आचार्य महाराज इतनी प्रभावना जैसे महान् ग्रंथों की वाचना हो रही है और उस वाचना | कर रहे हैं और मेरे द्वारा तो इतनी प्रभावना हो नहीं के बाद आचार्य महाराज के प्रवचन हो रहे हैं। सारा | सकती अतः मेरी उम्र भी उनको लग जाए। हम ऐसी ज्ञान का जगत उनके चरणों में नतमस्तक हो रहा है। | भावना तो कर ही सकते हैं, यदि यह अतिशय हो जाए बड़े-बड़े विद्वान् पण्डित उनके चरणों में बैठकर अध्ययन | तो शायद हमारा भी कई भव्यों के कल्याण में निमित्तपना कर रहे हैं। यह देखकर मुझे लगा कि इससे बड़ा ज्ञान | होने से यह जीवन सार्थक हो जाए। का अतिशय और क्या हो सकता है? प्रस्तुति ब्र. मनोज जैन (लल्लन), जबलपुर श्री अभिनन्दन-जिनस्तवन प्राचार्य पं० निहालचन्द्र जैन, बीना अनन्त ज्ञान सुख राशि गुणों के भोजन पान ग्रहण करने से शीर्ष शिखर पर राजित होकर मिलता नहीं कभी छुटकारा। अभिनन्दन सार्थक नाम किया है। इन्द्रिय विषयों के क्षरण सुखों सेक्षमासखी दयाबधू के स्वामी देह और देही स्थिर नहिं रह पाया ॥ १८॥ अंतरंग बहिरंग परिग्रह से नि:संग, आसक्त-पुरुष, आसक्ति-दोष से, योगस्थ समाधि धर्मध्यान राज-दण्ड, भय के विधान से, फिर शुक्ल ध्यान अन्तर्यामी ॥ १६ ॥ अकरणीय कार्यों से बचता। जड शरीर जिसके निमित्त से, फिर भी यह पुरुष लोक में, कर्म बन्ध व सुख दुःख पीड़ा। क्यों आसक्त विषय सुख में है? यह मेरा मैं इसका स्वामी जगत जीव को, यह सम्बोधा जिनेन्द्र ने॥ १९॥ पर में मिथ्या प्रीति सुहायी। आसक्ति का यह अनुबन्धन, क्षणभंगुर ज्ञेयों में जिससे जनित वृद्धि तृष्णा की। स्थिरता का स्वप्न संजोया। संतापित करता जन जन को, भ्रमित जीव जगती को, तुमने भला कभी शाश्वत हैं अल्प-विषय-सुख? सही तत्त्व का रहस बताया॥ १७॥ हे अभिनन्दन! श्री अभिनन्दन ने यह परमार्थ बताया शरण आप हैं सत्पुरुषों के। कि क्षुधा-तृषा का दुःख . श्रेयस मंगल धर्म आपका ॥ २० ॥ 8 नवम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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