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सुन समझ और पहिचान: एक चिन्तन
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डॉ० पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य है और यहीं से यह धर्म के मार्ग में विचरण करने लगता है। जिसने यह भेदज्ञान प्राप्त कर लिया वह अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक काल तक संसार में भ्रमण नहीं कर सकता आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किंल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥
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संसार एक बीहड़ वन के सामन है, इसमें यह जीव अनादिकाल से दिग्भ्रान्त मानव की तरह भ्रमण कर रहा है। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवों की चौरासी लाख योनियों में निरन्तर भटकते रहने पर भी आज तक इसे निवृत्ति का मार्ग नहीं मिला। जब अन्तर्दृष्टि से विचार करते हैं, तब समझ में आता है कि यह जीव मोहरूपी मदिरा का पानकर उसके मद में आपा पर को भूल रहा है। में कौन हूँ? इसका इसे पता नहीं और शारीरिक बाह्य पदार्थों को अपना मान उनके अर्जन संरक्षण तथा विनाश आदि के समय घोर संक्लेश का अनुभव करता हुआ निरन्तर दुःखी रहता है । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक की ऐसी दशा है, जिसमें ज्ञान की शक्ति अत्यधिक तिरोभूत रहती है और उसके कारण यह जीव हेयोपादेय का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता, परंतु संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय, ऐसी पर्याय है कि, जिसमें मन का सद्भाव रहने के कारण इस जीव में हेयोपादेय का विज्ञान विशेष रूप से प्रकट हो जाता है । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याय तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नरक इन चार गतियों में होती अवश्य है, परन्तु मनुष्य को छोड़कर अन्य गतियों में हेयोपादेय का पूर्ण विज्ञान और तदनुकूल आचरण का होना सम्भव नहीं। मनुष्य ही, खासकर कर्मभूमि का मनुष्य ही इस कोटि का प्राणी है कि वह पूर्ण रूप में आत्मशक्ति को प्रकट कर सकता है। मनुष्य ही बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा बन सकता है। यह सच है, परन्तु आज का मानव बाह्य जगत् की चकाचौंध से विमुख रहकर अन्तर्जगत् की ओर सन्मुख नहीं हो रहा है । यह मोह मदिरा के इतने तीव्र मद में मस्त है कि उसे कर्तव्य बोध हो ही नहीं पाता। स्वी पुत्र धनधान्य आदि बाह्य पदार्थों में ही इसकी दृष्टि उलझी रहती है और उन्हीं को सब कुछ समझ, उनकी इष्ट अनिष्ट परिणति में राग-द्वेष करता रहता है। इस जीव की यह दशा तब तक जारी रहती है, जब तक कि वह सम्यग्दृष्टि बनकर आप और पर को नहीं समझने लगता है। सम्यग्दर्शन के होते ही इसे आत्मा और पर का बोध हो जाता है और यह आत्मा को उपादेय तथा पर को हेय समझने लगता है। यहीं से इस जीव का कल्याण प्रारम्भ होता । के कारण चारित्र धारण करने की शक्ति प्रगट नहीं हुई
यह संसार का मार्ग विषय कषाय की पूर्ति का मार्ग तत्काल भले ही सुख का कारण मालूम हो, परंतु इससे यथार्थ सुख की प्राप्ति नहीं होती यह निश्चय है। उससे जो सुख होता है वह सुखाभास है और कुछ ही समय बाद नष्ट होनेवाला है। जिसे आत्म बोध प्रगट हुआ है ऐसा जीव सप्तम नरक का नारकी रहकर भी जिस आत्मीय सुख का अनुभव करता है वह आत्म बोध से विमुख नवम ग्रेवेयक के अहमिन्द्र को भी सुलभ नहीं है। आत्मज्ञानी जीव का सुख दूसरा है और मिथ्याज्ञानी जीव का सुख दूसरा है।
आचार्यों ने कहा है कि यदि तुझमें काल दोष
नवम्बर 2009 जिनभाषित
आज तक जितने सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जितने संसार में बद्ध हैं वे सब भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हुए हैं। शरीर जुदा है, आत्मा जुदा है, रागादिक विकार जुदे हैं आत्मा की विज्ञानघन परिणति जुदी है। यह सब भेदविज्ञान ही है। इसके होते ही परपदार्थ से इसका राग घटने लगता है । परपदार्थ में जो राग होता है, उसका मूल कारण आत्मवस्तु का अज्ञान है आत्मा सुख का भण्डार है, अनन्तज्ञान का पुञ्ज है, अनन्त बल-वीर्य आदि का निकेतन है, परन्तु कितना आश्चर्य है कि यह प्राणी अनादि अविद्यारूपी दोष से उत्पन्न चार संज्ञारूपी ज्वर से आतुर होकर आत्मज्ञान से विमुख हो दर-दर का भिखारी हो रहा है। वीतराग सर्वज्ञदेव संसार के इन भूले भटके प्राणियों को सचेत करते हुए कहते हैं कि हे भोले प्राणी ! असली शक्ति को पहिचान तू 'क्यों' अपनी निधि को भूलकर दरिद्र हुआ इधर-उधर भटकता फिर रहा है। जिन जीवों ने सर्वज्ञदेव की इस वाणी पर ध्यान दिया वे सुमार्ग पर आ गए। और शीघ्र ही संसार से संतरण पा गए ।
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