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________________ भरतेशवैभव की अप्रामाणिकता डॉ० शीतलचन्द्र जैन भरतेशवैभव काव्यग्रन्थ रत्नाकर वर्णी द्वारा रचित । सकते हैं? वीतरागी पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित शास्त्र ही जैनागम है। यह ग्रन्थ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् द्वारा | कहे जाते हैं। ऐसे रागी-द्वेषी कवि की रचना प्रामणिक सन् १९९८ में द्वितीय संस्करण के रूप में प्रकाशित | नहीं हो सकती। हुआ। यही संस्करण वर्तमान में उपलब्ध होता है। ३. प्रस्तावना में कहा है कि रत्नाकर ने अपने इस ग्रन्थ का आद्योपान्त अध्ययन करने पर इसमें | भरतेश वैभव को भी हाथी के ऊपर रखकर जुलूस बहुत से ऐसे प्रसंग देखने में आये जो भरत चक्रवर्ती | निकालने के लिए भट्टारक जी से प्रार्थना की। तब भट्टारक के चरित्रचित्रणवाले मुख्यतया आचार्य जिनसेन द्वारा रचित | जी ने कहा कि उसमें दो-तीन शास्त्रविरुद्ध दोष हैं। आदिपुराण या अन्य किसी भी ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं | इसलिए वैसा नहीं कर सकते हैं। तब रत्नाकर ने इस हैं। इस सम्बन्ध में कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जाता | विषय पर उनसे आग्रह किया एवं कुछ अनबन सा हुआ, तो उन्होंने सात सौ घर के श्रावकों को कड़ी आज्ञा दे १. ग्रन्थ की प्रस्तावना में कहा गया है कि इस दी कि इस रत्नाकर को कहीं भी आहार नहीं दिया ग्रन्थ में कवि ने कर्नाटक कविताओं में भरत चक्रवर्ती | जाय। तब रत्नाकर अपनी बहन के घर भोजन करते का स्वतंत्र जीवन चरित्र चित्रित किया गया है। इससे | हुए जिनधर्म से रूसकर 'आत्मज्ञानी को सभी जाति, यह स्पष्ट है कि जैन शासन में जो आगमपरम्परा है, | कुल बराबर हैं', ऐसा समझकर लिंगायत बन गया और उसके अनुसार यह ग्रन्थ नहीं लिखा गया। आचार्यों के | वहाँ पर वीरशैवपुराण, वसवपुराण, सोमेश्वरशतक आदि द्वारा जो भी ग्रन्थ रचे जाते हैं, उनके प्रारम्भ में यह | की रचना की। 'कहा जाता है कि जैसा तीर्थंकर प्रभु ने अथवा गणधर पाठक स्वयं निर्णय करें कि क्या ऐसे विकृतचरित्रभगवान् ने अथवा विभिन्न आचार्यों ने कथन किया है, | वाला व्यक्ति आगमाश्रित ग्रन्थ का रचयिता हो सकता वैसा ही मैं कथन कर रहा हूँ। परन्तु इसमें ऐसा कुछ | है? जिस लेखक की जैनधर्म पर श्रद्धा ही न हो, उसका भी नहीं कहा है। अतः 'स्वतंत्र जीवन चरित्र' होने से | लिखा ग्रन्थ कभी प्रामाणिक नहीं हो सकता। यह ग्रन्थ कवि की अपनी कल्पना मात्र है, इसे हम | ४. प्रस्तावना के द्वितीय कथानक के अनुसार एक आगम की श्रेणी में या प्रथमानुयोग के रूप में ग्रहण | बार रत्नाकर अपने को अपमानित समझकर चला गया। नहीं कर सकते। जाते-जाते एक नदी को पार कर रहा था, तब भक्तों २. इसके रचयिता रत्नाकर को श्रृंगारकवि उपाधि | ने शपथपूर्वक प्रार्थना की, तो भी 'मुझे ऐसे दुष्टों का प्राप्त थी। इसकी विद्वत्ता को देखकर राजकन्या मोहित / संसर्ग नहीं चाहिये। मैं आज ही इस जैनधर्म को तिलांजलि हो गई, रत्नाकर भी उसके मोहपाश में आ गया। वह | देता हूँ।' यह कहकर नदी में डूब गया और एक पर्वत उस पर आसक्त होकर शरीर के वायुओं को वश में | पर चला गया। बाद में राजा के आग्रह पर काव्य में करके वायुनिरोधयोग के बल से महल में अदृश्य पहुँचकर | रस दिखाने के लिए भरतेशवैभव की रचना की। उस राजपुत्री के साथ प्रेम करता था। यह बात धीरे- | इस कथन से यह स्पष्ट है कि रत्नाकर ने जैनधर्म धीरे राजा को मालूम होने पर राजा ने उसे पकड़ने का | को तिलांजलि देकर मात्र राजा को प्रसन्न करने के लिए प्रयत्न किया। उस दिन रत्नाकर ने अपने गुरु महेन्द्रकीर्ति | अपनी मर्जी के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना की थी। से पंचाणुव्रत को लेकर अध्यात्म तत्त्व में अपने आप | अतः ऐसा ग्रन्थ कभी प्रामाणिक हो ही नहीं सकता। को लगाने का प्रारम्भ किया। ५. प्रस्तावना (पृ. १९) में कहा गया है कि इस • उपर्युक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि रत्नाकर वर्णी | ग्रन्थ की रचना में कवि ने अन्य कवियों का अनुकरण शृंगाररस के कवि थे और उनका चाल-चलन सही नहीं | नहीं किया है। जो वर्णन उसे स्वयं को पसन्द नहीं आया था। ऐसे व्यक्ति की रचना को हम आगम कैसे कह | था, उसे और ढंग से जहाँ वर्णन करना चाहता था, वहाँ -नवम्बर 2009 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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