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________________ कर देना उपशमकरण कहलाता है। आये दिन अखबारों में पूर्व जन्म की घटनायें छपती निधत्ति- जिस कर्म की उदीरणा हो सकती हो | रहती हैं जिनमें कर्मों की फलप्राप्ति का भी जिकर आ किन्तु उदय और संक्रमण न हो सके. उसको निधत्ति | जाया करता हैं। ऐसी ही एक घटना का हाल हम यहा कहते हैं। लिख देते हैंनिकाचना- जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, आयरलैंड में एक चार वर्ष के बालक ने अपनी उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थायें न हो | पूर्व जन्म की कथा लोगों के सामने अपने माता-पिता सकें, उसे निकाचनाकरण कहते हैं। को बार-बार सुनाई। प्रथम तो माता-पिता का उस कथा और भी कर्मसिद्धांत की बहुत सी बातें हैं, जो | को सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ और यह समझा कि जैनकर्मसाहित्य से जानी जा सकती हैं। यहाँ विस्तारभय | बालक के मस्तक में बिगाड़ हो गया है या माइंड में से नहीं लिखा जाता है। गर्मी बढ़ गई दिखती है, इसलिये इसका अच्छा इलाज शंका- कर्म जड़ (ज्ञानशून्य) होते हैं। उन्हें ऐसा | कराना चाहिये। अनेक अच्छे-अच्छे डाक्टरों ने उस बालक बोध ही नहीं होता कि अमुक जीवों को अमुक समय | के मस्तिष्क की जाँच करके कहा कि इसका मस्तिष्क पर उनकी अमुक-अमुक करणी का अमुक-अमुक फल पूर्णतः शुद्ध और निर्विकार हैं। जैसा उत्तम मस्तिष्क इसका देना है, ऐसी सूरत में जैनों का कर्मसिद्धांत निरर्थक सा | है वैसा अन्य बालकों में मिलना कठिन है। तब लाचार प्रतीत होता है। होकर माता-पिता ने उस बालक के कथनानुसार उसके समाधान- जड़ पदार्थ भी अपनी शक्ति और स्वभाव | जन्मांतर के माता-पिता की खोज कराई। बालक ने जन्मांतर के अनुसार ठीक समय पर व्यवस्थित काम करते देखे के अपने माता-पिता का निवास काठियावाड़ में राजकोट जाते हैं। समुचित मात्रा में सर्दी गर्मी के मिलने पर बर्फ के पास एक ग्राम में बताया था। भारत सरकार द्वारा गिरना, बरसात होना, ठण्डक-गर्मी का पड़ना, बादलों | शोध की गई, तो उसके माता-पिता आदि के नाम, उस के आपस में टकराने पर बिजली उत्पन्न होना, भूचाल- | बालक की पूर्व जनम में मरने की तारीख, उसके बताये तूफान आना, ऋतुओं का पलटना आदि प्रायः सभी काम | घर के काम सब ज्यों के त्यों मिल गये। मरण के जड़ पदार्थों के अपने-अपने स्वभावानुसार ठीक समय | ८% मास बाद उस बालक ने आयरलैंड में जन्म लिया पर अपने आप हो जाया करते हैं। कोई भी ज्ञानधारी | था। पूर्व जन्म में उस बालक के जीव ने एक पड़ोसी वहाँ कुछ करने धरने नहीं पहुँचता है। हम भोजन करते | बुढ़िया की रुग्णावस्था में सेवा की थी और गरीब लोगों हैं। हमारा काम सिर्फ आहार को पेट में पहुँचा देना | को वस्त्र दान में बाँटे थे। जिन वस्त्रों को वह दान में होता है। आगे वह उदरस्थ आहार वगैर हमारे प्रयत्न | देता था, एक दिन उनमें सर्प छिपकर बैठ गया और के अपने आप अनेक क्रियायें करता है। यथायोग्य जठराग्नि | बालक के पूर्वभव के जीव को काट खाया। उससे मरकर के द्वारा यथायोग्य रस, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, वीर्यादि | वह आयरलैंड में एक करोड़पति के यहाँ पैदा हुआ। बन जाते हैं। यह सब काम जड़ ही करता है कि यह इस प्रकार कर्मसिद्धांत के विषय में जितनी प्रत्यक्ष है। यह बात निम्न गाथा में कही हैं- युक्तियुक्त और सूक्ष्म विवेचना जैनधर्म में की गई है, जह पुरिसेणाहारी गहियो, परिणमई सो अणेयविहं। | वैसी अन्य धर्म में नहीं है। अनेकांतवाद, अहिंसावाद मंसवसारुहिरादी भावे, उयरग्गिसंजुत्तो॥ १७९॥ | की तरह कर्मवाद भी जैनधर्म का एक खास सिद्धांत समयप्राभृत | है। कर्म क्या है? क्यों बँधते हैं? बँधने के क्या-क्या अर्थ- जिस प्रकार पुरुष के द्वारा खाया गया भोजन कारण हैं? जीव के साथ वे कब तक रहते है? क्याजठराग्नि के निमित्त से मांस, चरबी, रुधिरादि रूप परिणत | क्या फल देते हैं? उनसे छुटकारा कैसे हो सकता है? हो जाता है, उसी प्रकार यह जीव अपने भावों के द्वारा | इत्यादि बातों का खुलासा केवल जैनधर्म में ही मिलता 'जिस कर्मपुंज को ग्रहण करता है, उसका तीव्र, मंद | है और बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से मिलता है। मध्यम कषाय के अनुसार विविध रूप परिणमन होकर "जैन निबन्धरत्नावली' (भाग २) से साभार बह अनेक प्रकार से फल देता है। - नवम्बर 2009 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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