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________________ छिद जाने पर जीव की मृत्य कही जाती है। । स्थिति और फलदानशक्ति और भी अधिक बढ़ जाती ६. नाम कर्म- इसकी वजह से शरीर और उसके | है, इसे ही उत्कर्षण कहते हैं। इन दोनों के कारण ही अंगोपांग आदि की रचना होती है। चौरासी लाख योनियों | कोई कर्म जल्दी फल देता है और कोई देर में। तथा में जो जीव की अनन्त आकृतियाँ हैं, उनका निर्माता | किसी कर्म का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द। यही कर्म है। सत्ता- बँधने के बाद तुरन्त ही कर्म अपना फल ७. गोत्र कर्म- इसके कारण जीव ऊँच-नीच कल नहीं देता है। कुछ समय बाद उसक फल मिलना शुरू का कहा जाता है। होता है। तब तक वह सत्ता में रहता है। जैसे शराब ८. अन्तराय कर्म- इसकी वजह से इच्छित वस्तु पीते ही तुरन्त अपना असर नहीं देती, किन्तु कुछ समय की प्राप्ति में रुकावट पैदा होती है। बाद अपना असर दिखलाती है, वैसे ही कर्म भी बँधने जैन सिद्धांत में कर्मों की १० मुख्य अवस्थायें | के बाद तुरन्त अपना फल न देकर कुछ समय तक या कर्मों में होनेवाली दस मुख्य क्रियायें बतलाई हैं, | सत्ता में रहते हैं। इस काल को जैन परिभाषा में अबाधा जिन्हें करण कहते हैं। उनके नाम - बन्ध, उत्कर्षण, | काल कहते हैं। अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, निधत्ति | | उदय- कर्मों के फल देने को उदय कहते हैं। और निकाचना हैं। यह उदय दो तरह का होता है। फलोदय और प्रदेशोदय। बंध- कर्म पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध | जब कर्म अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाता होने को बन्ध कहते हैं। यह सबसे पहली दशा है। | है तो वह फलोदय कहा जाता है और जब कर्म बिना इसके बिना अन्य कोई अवस्था नहीं हो सकती। इसके | फल दिये ही अलग हो जाता है तो उसे प्रदेशोदय कहते चार भेद हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और | हैं। प्रदेश बन्ध। जब जीव के साथ कर्म पुद्गलों का बन्ध । उदीरणा- जैसे आमों को पाल में देने से वे डाल होता है, तो उनमें जीव के योग और कषाय के निमित्त | की अपेक्षा जल्दी पक जाते हैं, उसी तरह कभी-कभी से चार बातें होती हैं। प्रथम, तुरन्त ही उनमें ज्ञानादिक | कर्मों का अपना स्थितिकाल पूरा किये बिना ही फल के आवरण करने वगैरह का स्वभाव पड़ जाता है। दूसरे, | भुगता देना उदीरणा कहलाती है। उदीरणा के लिये पहिले उनमें स्थिति पड़ जाती है कि ये अमुक समय तक | अपकर्षणकरण के द्वारा कम का स्थिात का कम करना जीव के साथ बँधे रहेंगे। तीसरे, उनमें तीव्र या मन्द पड़ता है। जब कोई असमय में ही मर जाता है तो फल देने की शक्ति पड़ जाती है। चौथे, वे नियत तादाद | उसकी अकालमृत्यु कही जाती है। इसका कारण आयु में ही जीव से सम्बद्ध होते हैं। कर्म की उदीरणा ही है। स्थिति का घात हए बिना उदीरणा उत्कर्षण- स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को | नहीं होती। उत्कर्षण कहते हैं। संक्रमण- एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्मरूप अपकर्षण- स्थिति और अनुभाग के घटने को | हो जाने को संक्रमणकरण कहते हैं। यह संक्रमण कर्मों अपकर्षण कहते हैं। | के मूल भेदों में नहीं होता है, न ज्ञानावरण दर्शनावरण बन्ध के बाद बँधे हुए कर्मों में ये दोनों उत्कर्षण- | रूप होता और न दर्शनावरण ज्ञानावरण रूप ही। किन्तु अपकर्षण होते हैं। बुरे कर्मों का बन्ध करने के बाद | अपने ही अवांतर भेदों में होता है, जैसे वेदनीय कर्म यदि जीव अच्छे कर्म करता है तो उसके पहिले बाँधे | के दो भेदों से सातावेदनीय असातावेदनीय रूप हो सकता हुए बुरे कर्मों की स्थिति और फलदानशक्ति अच्छे भावों | है और असातावेदनीय सातावेदनीय रूप हो सकता है। के प्रभाव से घट जाती है। इसे ही अपकर्षण कहते किन्तु आयुकर्म के लिये अपवाद है। आयुकर्म के चार हैं, और अगर बुरे कर्मों का बन्ध करके उसके भाव | भेदों में परस्पर संक्रमण नहीं होता है। जिस गति की और भी अधिक कलषित हो जाते हैं. जिससे वह और | आयु बाँधी है, नियमतः उसी गति में जाना पड़ता है। भी अधिक बुरे काम करने पर उतारू हो जाता है, तो | उसमें रद्दोबदल नहीं हो सकता। बुरे भावों का असर पाकर पर्व में बाँधे हए कर्मों की । उपशम- कर्म को उदय में आ सकने के अयोग्य 12 नवम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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