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________________ गतांक से आगे जैन कर्म सिद्धान्त स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया प्रश्न : पूर्व संचित कर्मों के उदय से रागद्वेष भाव । करने का स्वभाव पड़ेगा और यदि रागादि कषायों से होते हैं और रागद्वेष से नये कर्म बँधते हैं, यह क्रम | खिंचे हैं, तो चारित्र के नष्ट करने का स्वभाव पड़ेगा। बीज-वृक्ष की तरह अगर अनादि से चला आ रहा है, इसे ही प्रदेशबंध और प्रकृतिबंध कहते हैं। योग से सिर्फ तो इसका उच्छेद तो कभी होने का नहीं है। इतना ही काम होता है। कर्मों का आत्मा के साथ अमुक उत्तर : आगम वाक्य ऐसा है काल तक टिके रहना और अपना फल आत्मा को पहुँचाना दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। जिसे कि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कहते हैं यह कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहित काम अकेले योग का नहीं है, योग के साथ होनेवाली अर्थ- जैसे जले हुए बीज में बिल्कुल भी अंकुर | कषायों का है। कषायों के बिना कर्मपरमाणु आत्मा । पैदा नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के जला | टिकते नहीं हैं। जैसे आते हैं, वैसे ही चले जाते हैं। देने पर उससे भी भवांकुर उत्पन्न नहीं होता है। तात्पर्य | जैसे एक स्तम्भ पर यदि सच्चिकण वस्तु तैलादि लिपटे इसका यह हुआ कि जैसे किसी एक बीज के किसी हुए हों तो वायु से उड़कर आई धूलि स्तम्भ पर चिपट वक्त दग्ध कर देने पर उसकी आगामी काल में होने | जाती है। वरना चिपटती नहीं है, स्तम्भ का स्पर्शमात्र वाली बीज-वृक्ष की श्रृंखला समाप्त हो जाती है, उसी | होकर वह गिर पड़ती है। स्तम्भ पर जितना हलकाप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कर्मों के उदयकाल में अपने | गहरा चेप लगा होगा, उसी माफक धुलि हलकी-गहरी विवेक से इष्ट विषयों में आसक्ति भाव और अनिष्ट | चिपक सकेगी। उसी तरह यदि कषाय तीव्र होगी, तो विषयों में विषाद भाव नहीं करता है, तब उसके नये | कर्म जीव के साथ बहुत समय तक बँधे रहेंगे और कर्मों का बन्ध नहीं होने और पुराने कर्मों का उदय | फल भी तीव्र देंगे। यदि कषाय हल्की होगी तो कर्म हो निर्जर जाने से उसके भी फिर भावकर्म-द्रव्यकर्म | कम समय तक बँधे रहेंगे और फल भी कम देंगे। की श्रृंखला टूट जाती है। क्योंकि केवल पूर्व कर्म के | कर्मों के स्वभाव आठ प्रकार के हैं, इस कारण फल का भोगना ही नये कर्मों का बंधक नहीं होता, | उन-उन स्वभाव के रखनेवाले कर्मों के नाम भी वैसे किन्तु कर्मों के भोगकाल में जो नूतन रागादि भाव उत्पन्न | ही रख दिये गये हैं। वे नाम इस प्रकार हैं ज्ञानावरण, होते है, उनसे बन्ध होता है। दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और मन, वचन, काय इन तीनों की या इनमें से किसी | अंतराय। एक की क्रिया से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली हरकत १. ज्ञानावरण कर्म- जीव के ज्ञानगुण को पूर्णतः को जैनदर्शन में योग नाम से कहा है (जो ऐसी हरकत | प्रगट नहीं होने देता है। इसी की वजह से अलग-अलग नहीं होने देता अर्थात् जो तीन गुप्तियो का धारी है वह | जीवों में ज्ञान की हीनाधिकता पाई जाती है। योगी कहलाता है)। इस योग के द्वारा कार्मण वर्गणाओं| २. दर्शनावरण कर्म-जीव के दर्शनगुण को ढाँकता का आत्मा से सम्बन्ध होने के लिये आकर्षण होता है।। है। जिस प्रकार चुम्बक में लोहे को अपनी तरफ खींचने | ३. वेदनीय कर्म-जीव को सुख-दुख का अनुभवन का स्वभाव होता है, उसी प्रकार संसारी जीव में योग | कराता है। के प्रभाव से कार्मण पुद्गलों को अपनी तरफ खींचने | ४. मोहनीय कर्म- मोहित कर देता है, मूढ़ बनाता की शक्ति होती है और कार्मण पुद्गलों में संसारी जीव | है। इसके दो भेद हैं, एक वह जो जीव को सच्चे मार्ग की तरफ खिंचने का स्वभाव होता है। का भान नहीं होने देता, इसका नाम दर्शन-मोहनीय है। । कर्मपुद्गलों का खिंच आकर आत्मा से सम्बन्ध | दूसरा वह जो सच्चे मार्ग का भान हो जाने पर भी उस करना और उनमें स्वभाव का पड़ना यह कार्य योग से | पर चलने नहीं देता। होता है। यदि वे कर्म पुदगल किसी के ज्ञान में बाधा ५. आयु कर्म- यह किसी अमुक समय तक डालनेवाली क्रिया से खिंचे हैं, तो उनमें ज्ञान के आवरण | जीव को किसी एक शरीर में रोके रखता है। इसके नवम्बर 2009 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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