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________________ द्वितीय अंश कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का स्वरूप आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मई २००७ में आयोजित श्रुताराधना शिविर में १४ मई २००७ के द्वितीयसत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का द्वितीय अंश प्रस्तुत है। सराग सम्यग्दर्शन या व्यवहार सम्यग्दर्शन में कुछ। कही गई है। यहाँ पर बात कही गई है आप्त की। आलम्बन आवश्यक होता है। सरागसम्यग्दर्शन की उत्पत्ति | परमार्थभूत आप्त कौन होता है? उनका लक्षण क्या है? के लिए कुछ आलम्बन आवश्यक हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन | उसके लिए भी समन्तभद्र स्वामी ने एक कारिका की उत्पत्ति के लिए निरालम्ब होना आवश्यक है। किसके | दी हैऊपर विश्वास करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की बात क्षुत्पिपासा-जरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः। कही है। किसके ऊपर श्रद्धान करें? छह द्रव्यों का श्रद्धान न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते॥ करना है। छह द्रव्यों में चार द्रव्य शुद्ध हैं। वे हमारे र.श्रा.श्लो . ६॥ लिए सराग सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण कैसे बनेंगे? ये परमार्थभूत आप्त हैं, जो क्षुधा आदि अठारह हम देखेंगे, छुयेंगे, सूंघेचेंगे, टटोलेंगे, इन कार्यों में | दोषों से रहित हैं। वे ही हमारे देव हैं, वे ही हमारे वे चार द्रव्य नहीं आ सकते हैं। वह बात बाद में करेंगे, | आराध्य हैं। वे ही हमारे नमस्कार के योग्य हैं। इन अब पुद्गल द्रव्य के ऊपर विश्वास करोगे, तो क्या विश्वास पर हम विश्वास करेंगे और इनका स्वरूप ज्ञात कर करोगे? पंचेन्द्रियों के विषय हैं। जीव द्रव्य दिखता नहीं। उस पर श्रद्धा करेंगे, तो हमें सम्यग्दर्शन का लाभ होगा। आप सुन रहे हैं न? सराग सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में | यद्यपि यह नियम नहीं है, हो भी सकता है नहीं भी दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशम होना हो सकता है। बाहर के माध्यम से नहीं, भीतर के माध्यम, अनिवार्य है। उसके बिना वह प्राप्त नहीं हो सकता है। से 'दंसणमोहस्सखयपहदी' (नि.सा.) दर्शनमोहनीय कर्म यह आगमसम्मत बात है। अब समन्तभद्र स्वामी को का क्षय आदि होगा, ऐसा आगम का वचन है। दर्शनथोड़ा सा याद कर लें। थोड़ा कुन्दकुन्द स्वामी से भी मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम के माध्यम बता देंगे। लेकिन पहले समन्तभद्र स्वामी को सुन लो। | से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। यहाँ पर जिनदेव, रत्नकरण्ड श्रावकाचार का यह श्लोक है निर्ग्रन्थ गुरु एवं जिनसूत्र का आलम्बन अनिवार्य है, सराग श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम-तपोभृताम्। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए बाहरी आलम्बन आवश्यक त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥ ४॥ | है। जैसे प्रत्येक द्रव्य में पर्याय की उत्पत्ति में व्यवहार परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान करना | काल की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार यहाँ पर सम्यग्दर्शन है। देव को हम बिम्ब के रूप में देख सकते भी सम्यग्दर्शन हमारे अन्दर उत्पन्न होगा, किन्तु इनके हैं। ये साक्षात् देव हैं नहीं, यह पत्ता कट गया। अब आलम्बन से होगा। गुरु महाराज आदि को जो निश्चय शास्त्र हैं, अब शास्त्रों में कौन सा शास्त्र कहें? सभी | सम्यग्दर्शन उत्पन्न होगा, तो इस व्यवहार को गौण करेंगे लोग अपने-अपने शास्त्र को सच्चा कहते हैं। अब और आत्मा का आलम्बन लेंगे, तो निश्चय सम्यग्दर्शन, 'तपोभृतां' शब्द आ गया। तपस्वी, इन सबके लक्षण दिये अभेद रत्नत्रय की प्राप्ति होगी। इसलिए सामायिक आदि गये हैं। अब बिम्ब के रूप में देव को स्वीकार करना कालों में हम सारे के सारे व्यवहार कार्यों को छोड़कर है, जिसको लेकर पंडित जी ने अपनी तरफ से या के, पुण्य के कार्यों को छोड़कर के, पुण्य का मतलब श्रोताओं की तरफ से प्रश्न कर रखा है। न चतुर्णिकायवाले आवश्यक कार्यों को छोड़कर के सिर्फ आत्मा का ही देवों की बात यहाँ पर कही गई है, न पद्मावती धरणेन्द्र | आश्रय लेते हैं अर्थात् सामायिक तो करेंगे। अब देव की बात कही गई है, न ही कल्पवासी देवों की बात का स्वरूप बता दिया। अठारह दोषों से रहित होते हैं। . कही गई है, न ही व्यन्तरों की बात कही गई है। न | अठारह दोष कौन से हैं? क्षुधा को पहले शांत करो। अहमिन्द्रों की बात कही गई है। न ही नागेन्द्रों की बात | फिर क्षुधा आदि को लेकर प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, अगस्त 2009 जिनभाषित 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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