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________________ से बचायेंगे और आन्तरिक तप हमारे अन्तरंग को शुद्ध करेंगे। त्याग से दान के भाव बढ़ेंगे और औषधि, शास्त्र (ज्ञान), अभय और आहार दान के फलस्वरूप हम समाज, संत एवं असहायों का संरक्षण कर सकेंगे। इससे जो पुण्यार्जन होगा, उससे हम नीरोग, ज्ञानी, ताकतवर और अजातशत्रु की स्थिति पा सकेंगे। यदि राग-द्वेष का त्याग हो गया तो वीतरागता को कौन रोक सकता है? आकिञ्चन्य की अकिंचनता से हम न गरीब होंगे, न निर्धन, बल्कि उस सम्पन्नता को प्राप्त कर सकेंगे, जिसके बाद हम पुरुष से महापुरुष, शलाकापुरुषों तक की श्रेणी में आ सकते हैं। ब्रह्मचर्य की भावना और क्रियान्विति हमें न एड्स होने देगी और न पतित, बल्कि 'ब्रह्मणि चरतीति ब्रह्मचारी' के भावों को साकार करते हुए आत्मभावों के उस लक्ष्य तक पहँचा देगी जहाँ हम कह सकेंगे- 'जो मैं हूँ सो है भगवान् ज्ञाता द्रष्टा आतमराम।' क्यों न हम इन दस सोपानों पर चढ़ने का प्रयास करें? हम उतरते / गिरते तो आज तक रहे हैं, अब उठने का सुअवसर आया है पर्युषण पर्व के रूप में। क्या हम मुक्ति के इस अवसर को खोना चाहेंगे? कभी नहीं। डॉ० सुरेन्द्र जैन 'भारती' स्वयम्भूस्तोत्र : हिन्दीपद्यानुवाद प्राचार्य पं० निहालचंद जैन, बीना श्री वृषभ जिन स्तवन पर उपदेश बिना, स्व-प्रेरित, तज गये सती वसुधा नारी॥ ३॥ स्वात्मा के जो स्वयम्भू हैं। दोषों के सर्जक कर्मों को, सम्यक् प्रज्ञा नयनयुक्त जो, निर्विकल्प समाधि के द्वारा, दिव्य देशना के अम्भू हैं। परमशुक्ल ध्यानाग्नि से सद्गुणसमूह हरते मोहाज्ञान तिमिर को, निर्मम बनकर निर्मूल किया। जैसे चन्द्र रश्मियाँ, हरती निशा तिमिर को॥ १॥ तत्त्वज्ञान के पिपासुओं को, कर्मभूमि के आद्य-प्रजापति, जीवादितत्त्व का बोध दिया। जीवन व कृषि कर्मों के शास्ता। मृत्युञ्जय हो ग्राह्य त्याज्य के प्रखर-पारखी, शाश्वत सुख के स्वामी बनकर॥ ४॥ श्रेष्ठ ज्ञान-वैभव-अनुशास्ता। केवलज्ञान नयन अवलोकें बने विमोचक बाह्य-परिग्रह जगत जीव के अकथ विषय को। निर्ममत्व वैराग्य-प्रवर्तक॥ २॥ इन्द्रादिक से अर्चित वंदित, इक्ष्वाकुवंश के प्रथम-पुरुष, कर्म-रिपु को कर परास्त, सामर्थ्य, जितेन्द्रिय हे मुमुक्षु। हे आत्मस्वरूपी बुद्धि-लब्धि नाभिनन्दन। परिषहजय, बाधाओं को सह, क्षुद्र वादियों के शासन को जीत लिया, दृढ़व्रत-पालन में अधीत हो। हे वृभषदेव प्रभु! जो ओढ़े सागर-जल-सारी निर्मल कर दे मेरे मन को॥ ५॥ 5 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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