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________________ मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति निद्रा के बिना तो सम्यग्दर्शन नहीं होता है। आश्चर्य, मद, स्वेद, और खेद इन अठारह दोषों से रहित वीतराग भगवान् हैं। जिनबिम्ब ही साक्षात् जिनदेव यह पहले कह दिया कि भगवान् साक्षात् तो मिलने वाले नहीं हैं, जिस प्रकार चार शुद्ध द्रव्य नहीं मिलेंगे। कोई ऐसा प्रभाव हो जाय, तो बात अलग है, कोई विदेह क्षेत्र में ले जाय, तो बहुत अच्छा काम हो जाय। लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। अतः काम चलाओ, जिनबिम्ब को ही साक्षात् जिनदेव मानो । कई लोगों की यह धारणा है कि जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन से सम्यक्त्व की प्राप्ति मानना भी मिथ्यात्व है। अभी सुनिये पंडित जी हमारे पास बहुत प्रकार के ग्राहक है माल तो अपने को बेचना है, लेकिन ऐसा नहीं बेचेंगे हम कि " 'टके सेर भाजी, टके सेर खाजा । अंधेर नगरी, चौपट राजा ॥ ' हम किसी का माल ज्यादा लेते नहीं, तो कम भी क्यों लेवें हम ? न कम तौलते हैं, न कम देते हैं। यहाँ तो शुद्ध १०० टंच सोना मिलेगा। अब देखो, अठारह दोषों से रहित आप्त हैं। अब अपने को दोष ढूँढना है । यही हमारे लिए आवश्यक है। न ही यहाँ कल्पवासी देव हैं। न कुदेव हैं, न सुदेव हैं, न अदेव हैं। न ही चतुर्णिकाय के देव हैं। 'देवाश्चतुर्णिकाया:' इनका सार्वभौमिक क्षेत्र है। क्योंकि ये परमार्थभूत देव नहीं हैं। जो अठारह दोषों से रहित होंगे वे ही परमार्थभूत देव । अठारह दोषों से युक्त हैं या एक भी कम है, तो ऐसे देव यहाँ प्रासंगिक हैं ही नहीं । 'क्या वे मिथ्यादृष्टि हैं?" हम कहाँ कह रहे हैं कि वे मिध्यादृष्टि हैं, हम तो कह रहे हैं कि हमारे आराध्य तो अठारह दोषों से रहित ही हैं। समन्तभद्र महाराज जी कह रहे हैं। कोई व्यक्तिविशेष नियामक नहीं है। अन्य देव के आलम्बन से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता। इसको नहीं मानना समन्तभद्र महाराज जी को नकारना है। सम्पूर्ण जिनागम को नकारना है। TI आप्त की परीक्षा करनेवाले हैं वे । आप कहाँ जा रहे हैं? भविष्य सुधारना चाहो, तो सुधार लो तो अठारह दोषों से रहित हैं, उनमें सर्वज्ञत्व कहाँ है? क्या आपने कभी सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व को चश्मा लगाकर देखा है? वे तो दिखाई नहीं देते। परन्तु वे कहते हैं कि सर्वज्ञत्व अगस्त 2009 जिनभाषित 7 Jain Education International कई व्यक्ति आते हैं हमारे पास और कहते हैं, 'महाराज जी आप सम्यग्दर्शन की बात ही नहीं करते हैं।' हाँ, बात तो हम नहीं करते हैं। इसलिए नहीं करते कि हमें डर है, यदि दूसरी बात कह दें, तो समन्तभद्र महाराज हमारे लिए क्या कहेंगे। वे कहते हैं कि सर्वज्ञत्व की कोई आवश्यकता नहीं। सर्वज्ञत्व के विश्वास को विषय बनाये बिना भी हम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। समन्तभद्र महाराज ऐसा कहते हैं। हम नहीं कह रहे हैं, किन्तु यह पंक्ति ध्यान रखो, मिथ्यादृष्टि की दृष्टि में भी वीतरागता झलकती है, लेकिन सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में भी सर्वज्ञत्व नहीं आ सकता । वीतरागता के ही आलम्बन से सात तत्त्वों की समीचीन श्रद्धा उत्पन्न होगी। सर्वज्ञत्व को विषय बनाने का अधिकार तो क्षायिक ज्ञान को जाता है। मिथ्यादृष्टि बना बैठा है, भगवान् की परीक्षा क्या करेगा। कुछ नहीं कर सकता। वह भीतरी वस्तु है, बाहर से नहीं दिख सकती। ये कितने शांत बैठे हैं। ये न राग करते हैं, न द्वेष करते हैं। देखो तो, न खाते हैं, न पीते हैं। कोई प्रशंसा कर देता है, तो प्रसन्न नहीं होते, और कोई निन्दा कर देता है, तो आगबबूला नहीं होते हैं । न वरदान देते हैं न शाप । न शस्त्र रखते हैं और न शास्त्र रखते हैं। अब कोई आवश्यकता नहीं है। बहुत शांत बैठे हैं। मिथ्यादृष्टि देख करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। अपनी दृष्टि में भेदविज्ञान बना लेता है। मिथ्यादृष्टि को भी वहाँ सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है और सम्यग्दृष्टि का वहाँ पर सम्यग्दर्शन दृढ़ हो जाता है । फिर भी देवत्व कायम है, इसको आप याद रखिये । इधर-उधर की बातों में लगना नहीं, यही समन्तभद्र स्वामी ने कहा है। अब रही बात, परमार्थभूत देव ये हैं। इनकी आराधना करो। इनकी आराधना से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, तो पुष्ट होगा । उत्पत्ति के लिए और पुष्टि के लिए इनकी पूजा, आराधना करो । दोनों के लिए पच्चीस क्रियायें होती हैं। अब ध्यान से सुनिये, बहुत मार्मिक बात कह रहा हूँ। पच्चीस क्रियायें सारी की सारी साम्परायिक आसव का कारण हैं, यह कहा गया है। लेकिन ज्यों ही सम्यक्त्व क्रिया की बात आती है वहाँ पर हमें सावधान किया जाता है । सुनिये, देव - शास्त्र - गुरु की पूजा करने से भी साम्परायिक आस्रव होता है। इसे छोड़ दो, ऐसा कहीं नहीं कहा। सम्यक्त्व क्रिया क्या है? सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण है, - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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