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प्राप्त हो, तो सिद्ध हो सकता है कि वास्तु-शास्त्रानुकूल गृह में वास सातावेदनीय के उदय का और प्रतिकूल गृह में वास असाता के उदय का निमित्त है। इसी प्रकार के प्रयोग अपमृत्यु एवं कुलक्षय के विषय में भी करके देखे जायें। इसी तरह भारत और पाक के नेताओं, दिगम्बर-श्वेताम्बर, तेरापन्थी-बीसपन्थी, सोनगढ़ी-असोनगढ़ी आदि सम्प्रदायों के नेताओं को तथा एक ही परिवार के परस्पर शत्रुभाव रखनेवाले सदस्यों को वास्तुशास्त्रानुकूल भवनों में रखकर देखा जाय। यदि उनमें रहने पर वे, पडौसीदेश, सम्मेदशिखर आदि तीर्थ, पूजापद्धति, निश्चय और व्यवहार, धन-जमीन आदि विषयक विवादों और कलहों को त्याग कर परस्पर मैत्रीभाव से रहने लगते हैं, तो सिद्ध हो सकता है कि वास्तुशास्त्रानुकूल गृह में वास सातावेदनीय के उदय का और तत्प्रतिकूल गृह में वास असातावेदनीय के उदय का निमित्त है।
क्या वास्तुशास्त्री ऐसे प्रयोग करके दिखलायेंगे? सर्वज्ञ ने वास्तुशास्त्रानुकूल और तत्प्रतिकूल गृहों में वास को उपर्युक्त लाभ-हानियों का हेतु नहीं बतलाया है। ऐसी हालत में उपर्युक्त प्रयोगों से ही वास्तुशास्त्रविषयक तथाकथित मान्यताएँ प्रामाणिक सिद्ध हो सकती हैं। वास्तुशास्त्री जब तक प्रयोगों के द्वारा उपर्युक्त नियमों को सत्य सिद्ध नहीं कर देते, तब तक उनकी वास्तुशास्त्रविषयक मान्यताएँ विश्वसनीय नहीं हो सकतीं। सातावेदनीय के उदय के बाह्यनिमित्त
जीवविपाकी सातावेदनीय के उदय के लिए स्वादिष्ट रस, सुन्दर रूप, आह्लादक गन्ध, मृदु स्पर्श, कर्णप्रिय शब्द, तथा आदर-सत्कार, प्रशंसा, प्रोत्साहन आदि के सूचक वचन एवं तदनुरूप व्यवहार आदि आवश्यक होते हैं, क्योंकि ये सातावेदनीय के उदय से जो सुखानुभवन रूप कार्य होता है, उसके बाह्य साधक हैं।
और धनादि सुखसामग्री के प्राप्ति के लिए अभ्यन्तर में पुद्गलविपाकी सातावेदनीय का उदय हो तथा बाह्य में मनुष्य कृषिवाणिज्यादिरूप पौरुष करे, तब धनादि की प्राप्ति होती है। वास्तुशास्त्रानुकूल गृह न तो स्वनिवासी मनुष्य के लिए स्वयं कृषिवाणिज्यादि रूप पौरुष करता है, क्योंकि वह अचेतन है, इसलिए उसमें ज्ञान, रागद्वेष, पक्षपात और शुभाशुभ प्रवृत्ति नहीं होती, न वह स्वनिवासी मनुष्य में उक्त पौरुष करने की बुद्धि उत्पन्न करता है, क्योंकि बुद्धि कर्मानुसारिणी होती है- 'बुद्धिं कर्मानुसारिणी' (आदिपुराण / ४४/ ५५), न ही वह मनुष्य के पुण्य में वृद्धि करता है, क्योंकि यह जीव के शुभभावों से होती है, न वह मनुष्य में शुभभावों की उत्पत्ति करता है, क्योंकि वह समीचीन देव, शास्त्र, गुरु और धर्म के अवलम्बन से होती है, न ही उसमें कोई दैवी या ईश्वरीय शक्ति होती है, जिससे वह स्वनिवासी मनुष्य को धनवान् बना दे, क्योंकि जिनागम जीवों के भाग्य का निर्माण करनेवाले किसी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार वास्तुशास्त्रानुकूल गृह पुद्गलविपाकी सातावेदनीयकर्म के उदय से होनेवाले धनादिसम्पादनरूप कार्य का बाह्यसाधक नहीं बन पाता। इसके अतिरिक्त वास्तुशास्त्र में गृह के विभिन्न स्थानों की दिशाओं का ही धनार्जन-धनक्षय आदि में हाथ होना बतलाया गया है, किन्तु दिशाएँ आकाशद्रव्य के विभिन्न भागों के नाम हैं और जिनागम में आकाशद्रव्य का एक ही कार्य बतलाया गया है- लोक के सभी द्रव्यों को स्थान देना- 'आकाशस्यावगाहः।' (त.सू./५ /१८)। जैसे पुद्गल के अनेक कार्यों में "सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च" (त.सू./५/२०) सूत्र द्वारा जीव के सुख, दुःख, जन्म, मरण आदि कार्य भी बतलाये गये हैं, वैसे आकाश द्रव्य के अन्य कार्य नहीं बतलाये गये हैं। तथा वह शुद्ध द्रव्य है, इसलिए वह न अमृतरूप से परिणमन करता है, न विषरूप से, न वरदाता के रूप से, न शापदाता के रूप से। अत: वास्तुशास्त्रानुकूल गृह जीव के पुद्गलविपाकी सातावेदनीय कर्म के उदय का भी निमित्त नहीं है। इसी तरह वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह असातावेदनीय के उदय का निमित्त नहीं है। __ निष्कर्ष यह कि वास्तुशास्त्र के अनुकूल या प्रतिकूल गृह में वास से मनुष्य की कोई भी लाभ
अगस्त 2009 जिनभाषित 24
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