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________________ मृदु या सुगन्धमय अनुभूति प्रदान नहीं करता, इसलिए वह सातावेदनीय के उदय के सुखानुभवन रूप कार्य का साधक न होने से उसके उदय का निमित्त या नोकर्म नहीं होता। इससे ठीक उलटा वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह के विषय में समझना चाहिए। मति-श्रुतज्ञानी जीव वास्तुशास्त्र के कथित परिणामों को जानने में असमर्थ वास्तुशास्त्र के अनुकूल और प्रतिकूल गृह में वास को जो अपमृत्यु-अनपमृत्यु, कुलक्षय-कुलरक्षा, धनक्षय-धनवृद्धि, पारिवारिक और सामाजिक शान्ति-अशान्ति का निमित्त बतलाया गया है, वह निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध छद्मस्थों के इन्द्रियगम्य नहीं है। वह न तो सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित किया गया है, न ही किसी मतिश्रुतज्ञानी ने प्रयोगों के द्वारा सिद्ध किया है। सभी वास्तुशास्त्री छद्मस्थों द्वारा कल्पित और उनसे सुनी-सुनाई बात को सर्वज्ञवचन कहकर श्रावकों पर थोपे चले जा रहे हैं। कोई भी वास्तशास्त्री यह नहीं बतला सकता कि वास्तुशास्त्र प्रतिकूल घर में रहने से मनुष्य की अपमृत्यु और कुलक्षय क्यों हो जाता है? क्या कोई ईश्वर या देव रुष्ट होकर गला दबाकर मार डालता है? या घर के वातावरण में कोई जहर घुल जाता है अथवा किसी खतरनाक बैक्टीरिया या वायरस की उत्पत्ति हो जाती है, जिससे रुग्ण होकर मनुष्य असमय में मर जाता है? यदि ऐसा है, तो सिद्ध किया जाय, और यदि ऐसा नहीं है तो सिद्ध है कि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल घर में रहने से कोई हानि नहीं होती। कोई भी मतिश्रुतज्ञानी जीव यह नहीं जान सकता कि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में रहने से मनुष्य के उन विविध असाता-वेदनीय कर्मों का उदय होता है, जिनसे उसे अनेक प्रकार के शरीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, परिवार और समाज में अशान्ति पैदा होती है, व्यापार-व्यवसाय में सफलता नहीं मिलती, मनुष्य की अकालमृत्यु हो जाती है, धनक्षय और कुलक्षय हो जाता है। यह भी नहीं जान सकता कि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में रहने से उसके ऐसे अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, जिनसे उपर्युक्त अनिष्टों को करनेवाले असातावेदनीय का उदय होता है, क्योंकि ये कार्य इन्द्रियगम्य नहीं हैं, अतीन्द्रिय हैं और अतीन्द्रिय कार्य केवल अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानगम्य होते हैं। अतीन्द्रिय कार्यों के कारण के विषय में मतिश्रुतज्ञानी मनुष्य केवल अटकल लगाता है और अटकल प्रामाणिक नहीं होती। उपर्युक्त अनिष्टों को अंजाम देनेवाले असातावेदनीय कर्म का उदय वास्तुशास्त्रप्रतिकूल घर में रहने से ही होता है, इसका क्या प्रमाण है? वह स्वोदयकाल आने पर भी हो सकता है अथवा कुदेवादि-श्रद्धारूप मिथ्यात्व एवं विषयाकांक्षारूप तीव्र अशुभपरिणामों से भी हो सकता है। धनार्जन के अन्तरंग और बाह्य निमित्त : साता का उदय एवं पौरुष इसके अतिरिक्त जैसे इष्ट इन्द्रियविषय सातावेदनीय के उदय से उत्पन्न होनेवाले सुख के बाह्य साधन हैं, वैसे वास्तुशास्त्रानुकूल गृहवास धनार्जन आदि का बाह्य साधन नहीं है। यदि होता तो भगवान ऋषभदेव प्रजा को धनार्जन हेतु असि, मसी, कृषि आदि कार्य करने का उपदेश न देते, वास्तुशास्त्रानुकूल गृह में निवास का उपदेश देते अथवा असि, मसी, कृषि आदि कार्यों को करने के साथ वास्तुशास्त्रनुकूल गृह में वास भी आवश्यक बतलाते। किन्तु नहीं बतलाया (देखिए, कार्तिकेयानुप्रेक्षा / टीका / गाथा १७-१८)। इससे सिद्ध है कि वास्तुशास्त्रानुकूल गृह में वास धनार्जन या धनरक्षा आदि के लिए आवश्यक नहीं है। प्रयोग किये जायँ हाँ, यदि वास्तुशास्त्री ऐसा प्रयोग करें कि वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृह में रहनेवाले दरिद्र व्यक्ति या किसी वास्तुशास्त्री को वास्तुशास्त्रानुकूलगृह में रखें और जब वहाँ रहकर वह धनवान् बन जाये, तब उसे पुनः वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में स्थानान्तरित कर दें। वहाँ रहने पर यदि वह निर्धन हो जाय, तो उसे पुन: वास्तुशास्त्रानुकूल गृह में वापिस ले आयें। वहाँ यदि वह पुनः धनवान् हो जाता है, तो ऐसा परिवर्तन एक-दो बार और करके देखा जाय और यह प्रयोग एक से अधिक व्यक्तियों पर किया जाय। यदि वही परिणाम हर बार 23 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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