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________________ लगते। इसलिए काल की कोई आवश्यकता नहीं। इस सैकण्ड के भी आइंस्टीन ने करोड़ो भाग किये हैं । यह बात तो समझ में आ ही नहीं सकती। आइंस्टीन ने उसका निगेटिव प्वाइंट लेकर प्रवर्तन करा दिया। एक सैकण्ड के असंख्यात समय होते हैं। यह बात जैन दर्शन ने आज से बहुत पहले कह दी थी। काल के बिना कार्य नहीं होता, ऐसा नहीं है, हाँ, काल के बिना कार्य हो नहीं सकता। लेकिन काल के द्वारा कार्य होता है, ऐसा भी नहीं है। यह ध्यान रखो, तो काल को निकाल दो। 'धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं' धर्म से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। 'धर्मेण एव' कहा है 'कालेन एव' ऐसा नहीं कहा । 'कालेन एव' काल से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसा लिख देते। छन्द भी नहीं टूटता, काम भी बन जाता। लेकिन नहीं लिखा। इसलिए सम्बोधन में 'हे धर्म ! मां पालय', हे धर्म ! मेरी रक्षा करो, ऐसा कहा है। 'हे काल! मां पालय', 'हे काल! मेरी रक्षा करो, ' ऐसा नहीं कहा। हे काल! मेरी रक्षा करो, ऐसी जोड़ दो । एक पंक्ति नहीं, धर्म की भक्ति करो, तो धर्म रक्षा करेगा। । अब धर्म कौन से द्रव्य में मिलेगा? प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने धर्म मिलेंगे। लेकिन वीतराग धर्म अथवा दया धर्म कहाँ मिलेगा? दया धर्म मिलेगा तो मनुष्यों में मिलेगा, तिर्यञ्चों में मिलेगा, जीव में मिलेगा। इसलिए जहाँ दया धर्म मिलेगा, तो उसे पूज्यता की दृष्टि से देखते हैं । मनुष्यों में भी दया धर्म मुनि अवस्था में मिलेगा। इस ढंग से यदि देखते हैं, तो उस दया की शरण में जाओ। वह मूल है। मूल को छोड़ोगे तो बड़ी भूल होगी। काल नियन्ता नहीं , आज का युग बड़ी भूल कर रहा है। दया के पक्ष को छोड़कर, काल के पक्ष को लेकर चल रहा है। ऐसा करके वह महान् पुरुषार्थ को धक्का दे रहा है, पीछे धकेल रहा है। व्यक्ति की बुद्धि को मोड़ रहा है। भ्रम फैला रहा है । काल तो सामान्य रूप से छहों कालों में बना रहता है । अन्तिम बात कह करके मैं अपनी बात समाप्त कर देना चाहता हूँ, क्योंकि समय हो रहा है, समय के अनुसार सब कार्य होने चाहिए । मान लो कोई व्यापार करता है, तो व्यापार में आप देखते हैं कि लेन-देन चलता है और जब लेन-देन चलता रहता है, तो ऐसी स्थिति में संग्रह भी हो सकता है और Jain Education International संग्रह के अभाव में वह मुनि भी बन सकता है। अब मान लीजिये थोड़ा संग्रह हो गया, तो अब मैं यह बताना चाह रहा हूँ कि इसमें काल कैसे प्रमुख बन गया ? तो अब आपके धन की दो क्वालिटी बन जाती हैं। एक क्वालिटीएक नम्बर और दूसरी क्वालिटी दो नम्बर, तीसरा नम्बर तो नहीं आयेगा? अब देखो जो धन है, उसके ऊपर तो लिखा नहीं है कि यह नम्बर एक का और यह दो नम्बर का है। बात समझ में आ रही है न? हाँ, यह तो हमारी बुद्धि के द्वारा टाइटल दिया जा रहा है, न कि अवसर्पिणी काल के कारण धन का संग्रह हो रहा है। उस धन के टाइटल में अवसर्पिणी काल कारण है, ऐसा नहीं लिखा है। 'श्रोतुः कलुषाऽऽशयो वचनाऽशयो वा प्रवक्तुः ' धनसंग्रह में श्रोता का कलुषाशय है, तभी तो आपने इसको एक नम्बर घोषित किया और उसको दो नम्बर घोषित किया। दो को एक नम्बर बनाने की भी प्रक्रिया है । इसमें काल कारण है या आपकी बुद्धि कारण है । थोड़ा सोचिये और दिमाग में से काल द्रव्य को निकाल दीजिये। लेकिन इस जिनवाणी पर विश्वास रखिये। इसी में कहा है कि जो इस काल को पकड़ कर बैठा है, वह अनेक प्रकार के दुष्कार्य, दुःसाहस करता है एवं अनेक प्रकार के पंथ चलाये जा रहे हैं, तो इसमें कोई अन्य कारण हो सकता है, काल नहीं। थर्मामीटर केवल मापक है, वह स्वयं ज्वरग्रस्त नहीं। चिकित्सा ज्वरग्रस्त की होती है, उस ज्वरमाप यंत्र की चिकित्सा नहीं होती। इसलिए युग की चिकित्सा हमें करनी चाहिए, क्योंकि युग में रहना है। हम अपने आशय और बुद्धि को अच्छा बनाना चाहते हैं। किसी भी निमित्त को लेकर यदि हम युग को परिवर्तित कर देते हैं, तो कितना बड़ा कार्य होगा। यह ध्यान रखना कि वक्ता उपदेश देकर जितने व्यक्तियों का कल्याण कर सकता है, उतना वह एकबार में अकल्याण भी कर सकता है। एक का अकल्याण नहीं, वह अनेक का अकल्याण कर सकता है, उपदेश के माध्यम से, क्योंकि उसके पास दक्षता है। आइंस्टीन ने कहा कि काल से नहीं, काल-निरपेक्ष भी कार्य हो सकता है। जैनदर्शन कहता है कि कालनिरपेक्ष कोई कार्य नहीं होता है। लेकिन नियन्ता के रूप में काल नहीं है। यह तो द्रव्य में स्वयं ने ऐसी ऊर्जा उत्पन्न कर दी कि जिसके द्वारा उसका वेग बढ़ गया। मई 2009 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.524339
Book TitleJinabhashita 2009 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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