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'विज्' धातु से वेग बनता है, ध्यान रखो। वेग शब्द | ही अधर्म द्रव्य की। न ही आकाश द्रव्य की। किन्तु कहाँ से प्रारंभ होता है, उपसर्ग लगने से अनेक-अनेक | जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो सभी द्रव्यों की शब्दों का उद्घाटन होता है, जैसे- 'सम्' उपसर्गपूर्वक | डेफिनिशन (परिभाषा), गौण, मुख्य, क्रिया, धर्म, गुणवत्ता 'संवेग' बनता है, 'उद्' उपसर्ग लगने से उद्वेग शब्द बन | और प्रभाव इन सबका विवेचन करता है। जाता है। 'निर्' उपसर्ग लगने से निर्वेग शब्द बन जाता ऐसा विवचेन करने वाला धर्म कहीं नहीं है। हम है। 'आ' उपसर्ग लगने से आवेग शब्द बन जाता है। काल लोगों का सौभाग्य है कि ऐसा धर्म हमें मिला है। कल की महिमा गानेवालो! अब काल की महिमा गाना छोड़ | में स्वकाल, परकाल, निश्चयकाल, व्यवहारकाल का कथन दो और संवेग, निर्वेग की ओर आ जाओ। आइंस्टीन के | है। 'व्यवहारकालस्तु हेयः' व्यवहार काल तो हेय है और सामने यह रहस्य प्रकट हुआ, निश्चित रूप से वे खोजी | 'स्वकालस्तु उपादेयः' स्वकाल तो उपादेय है। 'चतुरातो थे ही। उन्होंने यहाँ तक तो खोज कर दी। किन्तु आप | राधनापरिणतः निश्चयकालस्तु केवलज्ञानस्य साक्षात् लोग आज भी काल पर ही अटक रहे हो। आइंस्टीन नहीं| कारणम्, तस्मात् व्यवहारकालस्तु हेयः' इस प्रकार कहा। अटके और उन्होंने कहा, इस कार्य में जितनी गति आयेगी, इस प्रकार से कहने का श्रेय भी जयसेन महाराज जी को उतना ही हम काल को गौण कर सकते हैं। गौण करना | जाता है। ऐसे जयसेन महाराज की आराधना करनेवाले अलग वस्तु है।
आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज थे, क्योंकि जयसेन महाराज 'समये मन्दगत्या परमाणुः प्रदेशात् प्रदेशान्तरं | आचार्य कुन्दकुन्द महाराज को ही सामने रखना चाहते थे। गच्छति।' जितने समय में मंदगति से पुद्गल परमाणु जयसेन महाराज जी ने पदखण्डना रूप टीकायें की हैं। आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में गमन करता है, | आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने वृद्ध अवस्था में हिन्दी टीकाएँ वह समय कहलाता है। अर्थात् आकाश के एक प्रदेश से | लिखी हैं। आचार्य ज्ञानसागर जी की 'श्रुतभक्त्या कृता पुद्गल परमाणु मन्दगति से आकाश के दूसरे प्रदेश तक | तट्टीका' वह हिन्दी टीका जयवन्त हो, जयशील हो, यही चलता है, तो एक समय लगता है। वही परमाणु | भावना है। 'अहिंसा परमो धर्म' की जय। 'आभ्यन्तरपरिणत्या' अभ्यन्तर परिणति के कारण यदि | द्वितीय सत्र १४.५.२००७, अपराह्न उत्कर्ष से गमन करता है, तो उसमें एक समय में चौदह
काल शुद्ध द्रव्य है राजू गमन करने की क्षमता है, यह क्षमता काल की नहीं है। प्रात:कालीन सत्र में कुछ चिन्तनबिन्दु आप लोगों
सोचिये, समझिये, गौर कीजिये, उपसंहार कर रहा | के सामने रखे थे। उसमें बताया था कि काल प्रभावक हूँ। काल द्रव्य गौण है, वह मुख्य होता जा रहा है। यह नहीं है। उसको लेकर पंडित जी की जिज्ञासा आयी है। काल का निराकरण नहीं है। 'न निराकरणं ते' समन्तभद्र | हमने प्रातः उसका स्पष्टीकरण कर दिया था कि काल महाराज कहते हैं- हे भगवन्! आपके यहाँ गौणवृत्ति और | शद्ध द्रव्य है एक बात, उसमें न तो भरतखण्ड के कारण मुख्यवृत्ति का कभी निराकरण नहीं है। एक को गौण करते और न ऐरावत खण्ड के कारण अशुद्धि आती है। हैं, एक को मुख्य करते हैं। जैसे- तराजू का एक पलड़ा कालाणु 'निष्क्रियाणि च' इस सूत्र के माध्यम से चाहे विदेह ऊपर चला जाता है, एक नीचे रहता है। लेकिन दोनों पलड़े। में हो, चाहे भरत-ऐरावत में हो, कहीं भी हो, चाहे वह बने रहते हैं। मुख्य और गौण रूप से कार्य करते रहते | नरकों में हो या देव गति में हो, कहीं भी तीन लोक में हैं। आइंस्टीन ने उसको निरपेक्ष कर दिया। जब पुद्गल | एक-एक प्रदेश में स्थित है 'रयणाणं रासी इव' (द्र. सं. में भेद रूप से विकास हो गया, तो काल के बिना भी | २२) रत्नों की राशि की तरह वे सब शुद्ध हैं। ऐसा आगम वह तीव्र गति कर सकता है, ऐसा उन्होंने कहा। उनके | में उल्लेख किया गया है। इस कथन में कमी रह गयी, क्योंकि सूक्ष्म अध्ययन | मुक्ति में हमारे कार्य बाधक हैं, काल नहीं कालसापेक्ष जैनों के यहाँ होता है। उन्हें यह प्वाइंट नहीं अब दूसरी बात रही भरत और ऐरावत क्षेत्र मेंमिला आज तक। किसी भी वैज्ञानिक ने काल की | 'भरतैरावतयोवृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिडेफिनिशन (परिभाषा) नहीं दी। न ही धर्म द्रव्य की। न । णीभ्याम्' (त.सू.३/२७)। समय माने काल। आचार्यों ने 8 मई 2009 जिनभाषित -
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