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द्वितीय अंश
कालद्रव्य प्रभावक नहीं
आचार्य श्री विद्यासागर जी
इस प्रवचन का प्रथम अंश आप 'जिनभाषित' के गतांक में पढ़ चुके हैं। यहाँ द्वितीय अंश प्रस्तुत है।
आयु कर्म है, आयु काल नहीं है।
महाराज ने उसको 'कालश्च' (त. सू. ५ / ३९) ऐसा . अब छठा नहीं, सातवाँ नहीं, आठवाँ यह यम का | कहा। इस पर कई व्यक्ति कहते हैं 'कालश्च इत्येके' दूत काल आ गया है। गत ५० वर्षों से यह हम सुनते | (तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ५/३८)। जिनको काल नहीं मानना था,
आ रहे हैं। जैसा करेगा वैसा भरेगा। किसी के यहाँ ईश्वर, वे भी काल के ऊपर टूट पड़े। कुछ आचार्य कहते हैं किसी के यहाँ महेश्वर, किसी के यहाँ यह, किसी के कि काल भी होता है। छह कारकों में काल को नहीं रखा। वहाँ वह और अब जैनों के यहाँ काल आ गया। अब काल | काल नहीं होता। नहीं ही होता। काल ही प्रत्येक कार्य आ गया, समझ लेना। काल को मृत्यु का रूप दिया गया | का नियन्ता नहीं होता है। है। काल का अर्थ शून्य है, लिख लो अच्छे ढंग से, काल कालद्रव्य-विज्ञान की दृष्टि में आ गया तो जीवन समाप्त। 'कालो गदो'। दूसरा जीवन | ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जिन पर विचार करना प्रारंभ होगा, उसको काल नहीं कहेंगे। हमने क्या कहा, आवश्यक है। आज जो भी विज्ञान का विकास हुआ है काल को जीवन नहीं कहा। 'कालो गदो' आयु जब तक | मैं समझता हूँ कि काल को उन्होंने कुछ माना ही नहीं। है, जीवन तब तक है। ज्या वयोहाना (परस्मैपदी) कातंत्र यदि वे मानते तो निश्चित रूप से गिनती करते और नियन्ता रूपमाला में वय की हानि का नाम जीवन है। हानि हो के रूप में स्वीकार करते। इसलिए विश्व में सबसे ज्यादा रही है। अब जीवन नहीं, किसकी हानि हो रही है? आयु विकास विज्ञान का हो गया और आप हर बात में काल की, आयु कर्म है। आयु काल नहीं है। बड़े-बड़े विद्वान् | को ले बैठते हैं। इसको काल मानते हैं। उनको यह पता नहीं कि उपचार 'टाइम इज मनी' किनके लिए? जो कह रहे हैं उनके क्या है और परमार्थ क्या है? काल से हमारा सम्बन्ध है | लिए? ध्यान रखो। मंत्री कभी नहीं सोचेगा- 'टाइम इज ही नहीं। शुद्ध द्रव्य से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। वह | मनी'। सब काम करते चले जा रहे हैं। घड़ी आपके हाथ प्रभावक नहीं हो सकता, वह उदासीन है जैसे सिद्ध | में बँधी, ठीक है। लेकिन सब टाइम से काम करते है? परमेष्ठी। सिद्ध परमेष्ठी से भी वह काल और अतीत में | बेटाइम तो आप ही करते हैं, क्योंकि घड़ी आपके हाथ है। वह अशुद्ध था ही नहीं। क्योंकि सिद्ध परमेष्ठी कथञ्चित् | में बँध गई है। शुद्ध द्रव्य आपके हाथ में है। अब तो चाबी अशुद्ध थे। अब शुद्ध हुए हैं। लेकिन काल द्रव्य हमेशा | दी तो चली, नहीं तो, नहीं चली। आइंस्टीन ने यह कहा शद्ध था। काल तो किसी की पकड़ में नहीं आता है, I कि काल सापेक्ष है और जब तीव्र वेग हो जाता है द्रव्य वह परिणमनशील है। उसके निमित्त से द्रव्यों में परिणमन | का, ऑब्जेक्ट का, या जो भी मेटर है उसका, उस समय अवश्य होता है। पकड़-पकड़ करके परिणमन कराने का | उसमें काल की कोई आवश्यकता नहीं रहती। ऐसा उन्होंने स्वभाव काल द्रव्य का नहीं है।
सिद्ध कर दिया। लेकिन जैन दर्शन कहता है कि यहाँ पर जो कारण प्रेरक नहीं, जो कारण प्रभावक नहीं, जो | भी काल द्रव्य काम कर रहा है। क्योंकि परिणमन के लिए कारण साधक नहीं, तो स्वयं तो कुछ न करना और उस आवश्यक है। लेकिन परिणमन में निमित्त होने के लिए काल के द्वारा पुरुषार्थ कराना कहाँ तक उपयुक्त है? यह | हमने ऐसे द्रव्य को रखा है जिसके अविभागी प्रतिच्छेद चिन्तनीय विषय है।
का आविष्कार इस गति तक पहुंचा दिया है कि उसका हम किसके सामने क्या कहें, इसलिए बालकों को | चालू करते ही पहले पाँच मिनट लगते थे तब कार्य होता समझाने के लिए काल की बात बाद में करेंगे। उमा स्वामी | था। अब उस कार्य को करने में पाँच सैकण्ड भी नहीं
6 मई 2009 जिनभाषित -
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