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स्वयम्प्रभाधुत्तरदिग्गततीर्थकरभक्त्युद्देशेन।' (विजयोदयाटीका । भगवती-आराधना / गाथा ६३९)।
अनुवाद- "क्षपक के संस्तर का सिर पूर्व या उत्तर दिशा में करना चाहिए, क्योंकि लोक में मांगलिक कार्यों के सम्पादन में पूर्वदिशा प्रशस्त मानी जाती है। अथवा उत्तरदिशा (विदेहक्षेत्र) में विद्यमान तीर्थंकरों के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से उत्तरदिशा शुभ मानी जाती है।"
इन वचनों से स्पष्ट होता है कि पूर्व और उत्तर दिशाएँ अपने आप में शुभ नहीं हैं, अपितु पूर्व दिशा सूर्योदय के साहचर्य से अभ्युदय (उन्नति) का प्रतीक (दृष्टान्त) बन गयी है। इस कारण लोग 'उसके समान हमारा भी अभ्युदय हो,' इस कामना से उसकी ओर मुख करके अपने कार्य का आरंभ करने लगे। इसी बजह से वह शुभ मानी जाने लगी अर्थात् उस पर शुभत्व का आरोप कर दिया गया। क्षपक की दृष्टि से पूर्व की ओर मुख करके कायोत्सर्ग करने का यही प्रयोजन भगवती-आराधना की उपर्युक्त विजयोदयाटीका (गाथा ५६२) में बताया गया है।
और आचार्य की दृष्टि से पूर्व की ओर मुख किये जाने का उपर्युक्त कारण अथवा अन्य कोई कारण न बतलाकर मात्र यह कह दिया गया है कि यह कार्यसिद्धि का अंग है। किन्तु उत्तर की ओर मुख किये जाने का प्रयोजन यह बतलाया गया है कि उत्तर दिशा में विदेहक्षेत्र में जो स्वयंप्रभ आदि तीर्थंकर हैं, उनकी ओर भक्तिपूर्वक मुख करने से कार्यसिद्धि होती है। इस प्रकार उत्तरदिशा को स्वयम्प्रभ आदि तीर्थंकरों के साहचर्य से शुभ मान लिया गया है, अर्थात् उस पर शुभत्व का आरोप किया गया है। कार्यसिद्धि का हेतु तो उत्तरदिशा में स्थित तीर्थंकरों की ओर भक्तिपूर्वक मुख करना ही बतलाया गया है, उत्तर दिशा में मुख करना नहीं।
जिस प्रकार उत्तरदिशा अपने आप में शुभ नहीं बतलायी गयी, उसी प्रकार पूर्वदिशा भी अपने आप में शुभ नहीं हो सकती। अभ्युदय का प्रतीक या दृष्टान्त होने के अतिरिक्त पूर्वदिशा के शुभत्व का कारण उदयकालीन सूर्यबिम्ब में स्थित जिनबिम्ब का साहचर्य ही हो सकता है। जम्बूद्वीप में कर्कटसंक्रान्ति के दिन सूर्य का दक्षिणायन प्रारंभ होने पर निषधपर्वत के ऊपर प्रथममार्ग में सूर्य का प्रथमोदय होने पर अयोध्यानगरी में स्थित भरतचक्रवर्ती सूर्यबिम्ब में स्थित अकृत्रिम जिनबिम्ब को प्रत्यक्ष देखकर उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करते थे। (ब्रह्मदेवटीका । बृहदद्रव्यसंग्रह / गा.३५ पृ. १२२)। इससे सिद्ध होता है कि पूर्वदिशा के शुभत्व का कारण सूर्यबिम्ब में स्थित अकृत्रिम जिनबिम्ब का साहचर्य ही है। इस प्रकार पूर्व दिशा का भी शुभत्व आरोपित है, स्वाभाविक नहीं। शुभपरिणाम ही कार्यसिद्धि का अंग
भगवती-आराधना गाथा ५६२ की पूर्वोद्धृत विजयोदयाटीका में कहा गया है कि जिनायतन की ओर मुख करना भी शुभ परिणाम का हेतु होने से कार्यसिद्धि का अंग है। इससे सिद्ध है कि दिशाओं का महत्व नहीं है, अपितु जिनबिम्ब, जिनायतन और साक्षात् तीर्थंकरों का महत्त्व है। वे जिस दिशा में विद्यमान होंगे, उसी दिशा में मुख करके कार्य प्रारंभ करने से शुभपरिणाम होंगे और उनसे कार्यसिद्धि होगी। इस तरह सभी दिशाओं और विदिशाओं में शुभत्व-आरोपण के हेतु विद्यमान हैं, क्योंकि उन सभी में जो ज्योतिष्क, वैमानिक, भवनवासी और व्यन्तर देवों के विमान या आवास हैं, वे जिनचैत्यालयों और जिनबिम्बों से युक्त हैं। दिशाओं अर्थात् आकाश द्रव्य का उपकार केवल अवगाहनहेतुत्व है
है सूर्य के उदयादि की अपेक्षा आकाश द्रव्य के जो विभिन्न भाग कल्पित किये जाते हैं, उनका नाम दिशा है, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी ने कहा है
- "दिशोऽप्याकाशेऽन्तर्भावः आदित्योदयाद्यपेक्षया आकाशप्रदेशपङ्क्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपपत्तेः।' (सर्वार्थसिद्धि ५/३/ पृ. २०४)
अनुवाद- "दिशा का भी आकाश में अन्तर्भाव है, क्योंकि सूर्य के उदयादि की अपेक्षा आकाश की प्रदेशपंक्तियों में 'यहाँ से यह दिशा है', इस प्रकार के व्यवहार की उपपत्ति होती है।"
अभिप्राय यह कि आकाशद्रव्य ही दिशाओं के नाम से अभिहित होता है। और धर्म, अधर्म, आकाश
- मई 2009 जिनभाषित 3
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