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सम्पादकीय
दिशाओं का शुभाशुभत्व स्वाभाविक नहीं, आरोपित है
लौकिक और धार्मिक कार्यों में दिशाओं का बड़ा महत्व माना गया है। लोकप्रचलित वास्तुशास्त्र तो दिशाओं पर ही आधारित है। गृह का कौनसा अंग या भाग किस दिशा में होने पर शुभ (शुभफलदायक) होता है और किस दिशा में होने पर अशुभ (अशुभफलदायक), इसका ही विचार वास्तुशास्त्र में प्रमुखतया किया गया है। धार्मिक क्रियाएँ भी किस दिशा में मुख करके सम्पन्न की जायँ, इसका भी निर्देश जैन-अजैन ग्रन्थों में मिलता है। जैन ग्रन्थों में बतलाया गया है कि श्रावकों को पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके जिनपूजा, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएँ करनी चाहिए। इस विषय में भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथाएँ द्रष्टव्य हैं
पाचीणोदीचिमुहो चेदियहुत्तो व कुणदि एगते।
आलोयणपत्तीयं काउस्सग्गं अणाबाधे॥ ५५२॥ ___ अनुवाद- "गुरु का उपदेश प्राप्त कर समाधिमरण के लिए कृतनिश्चय क्षपक पूर्व, उत्तर या जिनबिम्ब की ओर मुख करके बाधारहित एकान्त स्थान में आलोचना के लिए कायोत्सर्ग करता है।"
पाचीणोदीचिमुहो आयदणमुहो व सुहणिसण्णो हु।
आलोयणं पडिच्छदि एक्को एक्कस्स विरहम्मि॥ ५६३॥ अनुवाद- "आचार्य भी पूर्व, उत्तर अथवा जिनायतन की ओर अभिमुख हो, सुखपूर्वक बैठकर एकान्त में अकेले ही केवल एक क्षपक की आलोचना सुनते हैं।"
पुढवीसिलामओ वा फलयमओ तणमओ य संथारो।
होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अह व पुव्वसिदो।। ६३९ ।। द- "समाधि के लिए क्षपक का संस्तर पृथ्वीमय, शिलामय, फलकमय (काष्ठनिर्मित) अथवा तृणमय होता है। उसका सिर उत्तर या पूर्व की ओर होना चाहिए।" उन्नति का प्रतीक होने एवं तीर्थंकर-साहचर्य के कारण उक्त दिशाएँ शुभ
क्षपक एवं आचार्य का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर क्यों होना चाहिए, यह प्रश्न उठाते हुए भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में इस प्रकार समाधान किया गया है
___“तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति उदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याम्युदयो यथा स्यादिति लोकः प्राङ्मुखो भवति। सूरेस्तु कोऽभिप्रायो येन प्राङ्मुखो भवति? प्रारब्धपरानुग्रहणकार्यसिद्धरङ्गं तद्दिगभिमुखता तिथिवारादिवदिति। उदङ्मुखता तु स्वयम्प्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान् चेतसि कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति। चैत्यायतनाभिमुखताऽपि शुभपरिणामतया कार्यसिद्धेरऊं।" (विजयोदयाटीका/भगवती-आराधना / गाथा ५६२)। __अनुवाद- 'प्रश्न : पूर्व दिशा अन्धकार को दूर करने में तत्पर सूर्य के उदय की दिशा है, अतः अपने उदय (उन्नति) का इच्छुक मनुष्य पूर्वदिशा के (अन्धकार से मुक्त एवं प्रकाश से जगमगाने के) समान मेरे भी कार्य का अभ्युदय (सिद्धि) हो, इस भावना से पूर्व की ओर मुख करता है। आचार्य किस अभिप्राय से पूर्व की ओर मुख करके बैठते हैं? समाधान : शुभ तिथि, शुभ वार आदि के समान पूर्व की ओर मुख करना प्रारंभ किये गये, क्षपकानुग्रहरूप कार्य की सिद्धि का अंग है, इसलिए आचार्य पूर्वाभिमुख बैठते हैं। तथा उत्तरदिशा में विदेहक्षेत्र है, जहाँ स्वयम्प्रभ आदि तीर्थंकर स्थित हैं। उन्हें चित्त में स्थापित कर उनके अभिमुख होने से कार्य की सिद्धि होती है, इस अभिप्राय से आचार्य उत्तर दिशा की ओर मुख करते हैं। जिनालय की ओर मुख करना भी शुभपरिणामरूप होने से कार्यसिद्धि का अंग है।'
यही समाधान विजयोदयाटीकाकार अपराजित सूरि ने क्षपक के संस्तर का सिर पूर्व या उत्तर दिशा में क्यों होना चाहिए, इस प्रश्न के प्रसंग में किया है___पूर्वोत्तमाङ्ग उत्तरोत्तमाङ्गो वा संस्तर: कार्यः। प्राची दिगभ्युदयिकेषु कार्येषु प्रशस्ता। अथवोत्तरादिक्
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मई 2009 जिनभाषित
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