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________________ I और काल ये चार द्रव्य सदा शुद्ध रहते हैं, इनका किसी अन्य द्रव्य के साथ संश्लेष या संयोग नहीं होता। अतः इनका कभी भी शुभ या अशुभ रूप से विभावपरिणमन नहीं होता। इनका सदा स्वभावरूप से परिणमन होता है और आकाश द्रव्य का स्वभाव है सभी द्रव्यों को स्थान देना 'आकाशस्यावगाहः । ' ( तत्त्वार्थसूत्र ५ / ci इसके अतिरिक्त उसका और कोई स्वभाव नहीं है। जैसे किसी जीव के कार्य को सफल या विफल करना, यह स्वभाव धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों में से किसी भी द्रव्य में नहीं बतलाया गया है। अतः दिशाओं अर्थात् आकाश द्रव्य का परिणमन केवल स्वयं के और अन्य द्रव्यों के लिए स्थान देने के रूप में ही हो सकता है, जीवों के कार्यों को सिद्ध या असिद्ध करने के रूप में नहीं इसलिए दिशाओं में स्वभाव से न तो शुभत्व घटित होता है, न अशुभत्व इसी कारण भगवती आराधना की विजयोदयाटीका के कर्त्ता श्री अपराजित सूरि ने उत्तर दिशा को विदेहस्थ तीर्थंकरों के सान्निध्य के कारण शुभ बतलाया है और पूर्वदिशा को सूर्योदय के सान्निध्य के कारण अम्युदय का प्रतीक होने की अपेक्षा अथवा सूर्यबिम्वस्थ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों के सान्निध्य की अपेक्षा शुभ निरूपित किया है। इस तरह उक्त दिशाओं में शुभत्व आरोपित है, स्वाभाविक नहीं । योगसार में जोइन्दुदेव कहते हैं अनुवाद - " हे जीव ! जैसे आकाश शुद्ध है, वैसे ही आत्मा भी शुद्ध कही गयी है। दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि आकाश जड़ हे और आत्मा चैतन्य लक्षण से युक्त है।" I इस दोहे में आकाशद्रव्य को आत्मद्रव्य के समान शुद्ध बतलाया गया है और कालद्रव्य के विषय में वर्तमान आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा है कि "काल से हमारा सम्बन्ध है ही नहीं शुद्धद्रव्य से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। वह प्रभावक नहीं हो सकता, वह उदासीन है, जैसे सिद्धपरमेष्ठी ।" ( श्रुताराधना / पृष्ठ ११) । आचार्य श्री विद्यासागर जी आगे कहते हैं- "किन्तु काल को उन्होंने ( सर्वार्थसिद्धिकार आदि आचार्यों ने) कभी भी सक्रिय प्रभावक के रूप में स्वीकार नहीं किया और चार द्रव्यों को शुद्ध कहा है। इसलिए कहा है कि ये चार द्रव्य हमेशा शुद्ध रहते हैं, पक्षपात नहीं करते, यदि पक्षपात करेंगे तो बहुत बड़ा घोटाला हो जायेगा।" (श्रुताराधना / पृ.१७)। आचार्य श्री के इस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि कालद्रव्य के समान आकाशद्रव्य (दिशाएँ) भी अप्रभावक अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी के समान उदासीन अत एव पक्षपातरहित है। पक्षपातरहित होने का तात्पर्य यह है कि आकाशद्रव्य का कोई भी भाग (दिशा) न तो किसी जीव के लिए शुभ होता है और न किसी जीव के लिए अशुभ। वह इन शुभाशुभ भेदों से परे है। यदि दिशाओं में सर्वद्रव्य- अवगाहनहेतुत्व के अतिरिक्त जीवों के शुभ-अशुभ करने की या उनके कार्यों को सिद्ध-असिद्ध करने की स्वाभाविक शक्ति मानी जाये, तो यह जिनागमबाह्य वचन होने के कारण आगमविरुद्ध होगा और आकाश द्रव्य के रूप में जीवों के सुख दुःख, सिद्धि-असिद्धि आदि के नियामक अर्थात् जीवों के भाग्यविधायक एक अदृश्य, अमूर्त, अपरिभाषित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना होगा। 1 शुभाशुभपरिणामोत्पादक द्रव्य ही शुभाशुभ द्रव्य जीव को सुखदुःख की प्राप्ति और उसके कार्य की सिद्धि असिद्धि उसके साता असातावेदनीय कर्म के बन्ध - उदय तथा अन्तरायकर्म के बन्ध, उदय एवं क्षयोपशम से होती है और इन कर्मों का बन्ध, उदय एवं क्षयोपशम जीव के शुभाशुभ परिणामों से होता है योग्य परद्रव्य केवल जीव के शुभाशुभ परिणामों की उत्पत्ति में निमित्त बनता है। जैसे जिनबिम्ब, जिनालय, पंचपरमेष्ठी आदि के सान्निध्य एवं उनकी श्रद्धाभक्ति, दर्शन-पूजन आदि के निमित्त से जीव में दया, निर्लोभ, निरभिमानता, सरलता आदि शुभपरिणामों की उत्पत्ति + मई 2009 जिनभाषित जेहउ सुद्ध अयासु जिउ तेहउ अप्पा वुत्तु । आयासु वि जहु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥ ५९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524339
Book TitleJinabhashita 2009 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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