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________________ भद्रता (स्वयंभूस्तोत्र), गुणोदय (आत्मानुशासन), रयण | द्वारा रचित-कथित साहित्य 'साहित्य' के हितकारी भावों मञ्जूषा (रत्नकरण्डक श्रावकाचार), आत्म मीमांसा (देवागम | से समन्वित है। वे जो कहते हैं, वह उनका अनुभव स्तोत्र), इष्टोपदेश, कल्याण मंदिर स्तोत्र, समाधि सुधा | है, उनकी भावना है इसीलिये वे प्राणीमात्र के शुभचिन्तक शतकम्, योगसार, एकीभाव स्तोत्र , नंदीश्वर भक्ति, गोमटेश | एवं उद्धार के प्रेरक हैं। महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर अष्टक आदि का प्रणयन किया है। ने साहित्य के संबंध में कहा था कि 'सहित शब्द से इस साहित्य को पढ़कर ज्ञात होता है कि उत्कृष्ट | साहित्य की उत्पत्ति' हुई है अतएव व्युत्पत्तिगत अर्थ साधुता के साथ-साथ जिनमें साहित्य सर्जना के प्रति | करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर गहरी रुचि एवं सहज भावाभिव्यक्ति की क्षमता विद्यमान | होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का है, ऐसे अनिवार्य भारतीय संत का नाम है आचार्य श्री | भाषा के साथ, ग्रंथ का ग्रंथ के साथ मिलन है, यही विद्यासागर। उन्होंने अपनी चर्या और चिन्तन में जो कुछ | नहीं वरन् यह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य पाया है वह परम्परा से पुष्ट भी है, आधुनिकता से छिन्न- | का अतीत के साथ निकट का मिलन कैसे होता है? भिन्न भी नहीं है। वे विरल हैं किन्तु समाज, संस्कृति, | आचार्य श्री विद्यासागर जी तो प्राणीमात्र के हितैषी हैं, राष्ट्र और विश्व से अविरल हैं। उनमें अभिनव कला | अतः उनके कृतित्व में भी प्राणी-हित सर्वत्र परिलक्षित सर्जक, प्रतिभावान कवि, परखीली दृष्टि संयुक्त चेतस् | होता है। डॉ० शान्ताकुमारी के अनुसार- 'प्रतिभावन् तपस्वी को जानने की प्रज्ञा विद्यमान है। वे समाज से असंपृक्त | कवि आचार्य श्री विद्यासागर जी ने आध्यात्मिक जीवन रहकर समाज को दिशा देना चाहते हैं और बदले में | की अजस्र-धारा का निर्बाध प्रवाहकर ऐसा साहित्य प्रस्तुत यदि कुछ चाहते है, तो वह है समाजसुधार। प्रकृति जीवी, | किया है, जो हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि बन गया दिगम्बरवेशी, साधनाशील, प्रियकर्मरत मनवाले वे मूकमाटी | है। उनने प्राचीनता-अर्वाचीनता, आध्यात्मिकतासे भी बुलवाकर प्रकृति के अन्तस्तल में छिपी अपार | आधिभौतिकता, परम्परागत दार्शनिक चिन्तन की गहराई संभावनाओं और संवेदनाओं का दिग्दर्शन कराते हैं। उनका | के साथ ही काल मार्क्स के प्रत्यय शास्त्र की गंभीरता व्यक्तित्व और कृतित्त्व दोनों महनीय हैं, अनुकरणीय हैं। का ऐसा वैचारिक सामंजस्य उपस्थापित किया है, जिसके सन्त सहज होते हैं और उनका जीवन सहजता कारण सन्त होकर भी वे इस सदी के नये मानव के का प्रतिबिम्ब। वे न तो कानों सुनी कहते हैं न आँखों प्रतिनिधि बन गये हैं।' आचार्य श्री विशालता और विराटता देखी, बल्कि जिसे भोगा है, अनुभव किया है तथा शास्त्र के दर्शन में विश्वास रखते हैं। यह उचित भी है क्योंकि और तर्क की कसौटी पर कसकर देखा है, उसे ही जिस आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा करनी हो वह कहते हैं। इसीलिए उनके विचारों में गंगा जैसी ही नहीं, | तुच्छता में विश्वास कैसे रख सकता है? वे लिखते हैं वरन गंगोत्री जैसी पावनता होती है। सागर-सी गइराइयाँ, चिन्तन है अभिराम। कूप बनो तालाब ना, नहीं कूप मण्डूक। त्याग तपस्या प्रकट है, चहुँ दिशि में शुभनाम॥ बरसाती मेंढ़क नहीं, बरसो घन बन मूक। प्रवचन पारंगत प्रभो, जन-मन के विश्राम। ऐसे महनीय एवं दुर्लभ संत को पाकर हम सब गुरुवर विद्या धाम को, शत शत बार प्रणाम | अपने आप में, अपनी दिगम्बर संस्कृति में गौरव का नाम, दाम और चाम के प्रलोभन से परे अध्यात्म | अनुभव करते हैं और आचार्य श्री के चिरायु होने की के परम रसिक श्रमणोत्तम आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज र्यश्री विद्यासागर जी महाराज | कामना करते हैं। नाम से 'यथा नाम तथा गुण' हैं, काम से 'सत्यकाम' प्रधान संपादक- पार्श्व ज्योति (मासिक) हैं, काया से जिनवर-सदृश और वाणी से सत्यवादी हैं। एल-६५, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.) उनके वचन 'प्रवचन' और साधना अनुकरणीय है। उनके । कि - मई 2009 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524339
Book TitleJinabhashita 2009 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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