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परन्तु
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज : श्रेष्ठ शिष्य, श्रेष्ठ गुरु
डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन, 'भारती' भारतीय वसुन्धरा सदैव संतचरणों का स्पर्श पाकर | यह आस्था क्यों जरूरी है? इस विषय में आचार्यश्री स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करती रही है। आज भी | विद्यासागर जी की मान्यता है किऐसे संत हैं, जिनके ज्ञान एवं चारित्र के उजास से अनेक यह बात सही है कि, नर-नारी प्रभावित हैं, चमत्कृत हैं और उनके प्रति परम आस्था के बिना रास्ता नहीं आस्था से जडे हए हैं। जैनधर्म परम्परा के वर्तमान में
मूल के बिना चूल नहीं, सर्वोच्च आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ऐसे ही संत है, जिन्हें प०पू० आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का
मूल में कभी शिष्य बनने का गौरव मिला और उन्हीं का सल्लेखना
फूल खिले हैं ? निर्यापक आचार्य बनने का सौभाग्य भी उन्हें मिला। इसी
फलों का दल वह तरह आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने मुनि श्री
दोलायित होता है समयसागर जी, मुनि श्री योगसागर जी, मुनि श्री क्षमासागर
चूल पर ही आखिर! जी, मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी, आर्यिका श्री गुरुमति
(मूकमाटी, पृ. १०) जी, आर्यिका श्री दृढ़मति जी, आर्यिका श्री मृदुमति जी
उन्होंने अपने एक 'हायकू' में इस भाव को लिखा जैसे द्विशताधिक शिष्यों का श्रेष्ठ गुरु बनकर, उन्हें अपने ही पद-चिन्हों का अनुगामी बनाया। इस तरह वे श्रेष्ठ
है कि- मूल की व्याख्या इस तरह नहीं होना चाहिए शिष्य भी हैं और श्रेष्ठ गुरु भी। हम सब उनके इस |
जैसे कि बरगद की जड़ें। कहने का तात्पर्य है कि हम शिष्य और गुरु दोनों रूपों के प्रति नतमस्तक हैं।
| जड़ों को जानें, जड़ों को सींचें, जड़ों की रक्षा करें क्योंकि __वर्तमान संतों में जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जड़ के बिना वृक्ष की स्थिरता संभव नहीं। इस तरह का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिये जाने
की भावनावाले आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा का एक प्रमुख कारण और भी है, और वह यह है विरचित साहित्य इस प्रकार हैकि वे परुषार्थी हैं. मन-वाणी और कर्म की एकता से संस्कत शतकम- श्रमण शतकम, भावना शतकम, संपृक्त हैं। उनमें विचारशीलता है, विचारों को कलम | परिषह शतकम्, सुनीति शतकम्, चैतन्य चन्द्रोदय (शतकम्)। में पिरोकर कागज पर उतारने की कला उन्हें आती है। हिन्दी काव्य- मूकमाटी (महाकाव्य), नर्मदा का वे सहज कवि भी हैं और सकल कवि भी। इसीलिए | नरम कंकर. डबो मत लगाओ डबकी. तोता क्यों रोता?. वे स्फुट काव्य से लेकर महाकाव्य तक रचते हैं, समीक्षकों, | चेतना के गहराव में। आलोचकों, पाठकों के विचारों से रूबरू भी होते हैं। हिन्दी शतक- निजानभवशतक. पर्णोदयशतक, वे अपने प्रति सजग हैं और दूसरों के प्रति सहिष्णु भी।
मुक्तककाव्यशतक, दोहा थुदिशतक। उनकी आस्था उन्हें साधना पथ की ओर बढ़ाती है।
स्तुति- शांतिसागर स्तुति, वीरसागर स्तुति, शिवसागर उनकी मान्यता है कि
स्तुति, ज्ञानसागर स्तुति शारदा स्तुति (हिन्दी संस्कृत), आस्था के विषय को आत्मसात् करना हो ।
MY SAINT-MY SELF उसे अनुभूत करना हो
प्रवचन संग्रह- गुरुवाणी, प्रवचन-पारिजात, प्रवचनतो
प्रमेय आदि अनेक प्रवचन संग्रह प्रकाशित । साधना के साँचे में
पद्यानुवाद- जैनगीता (समणसुत्तम्), कुन्दकुन्द का स्वयं को ढालना होगा सहर्ष! .
कुन्दन (समयसार), निजामृतपान (कलशानुवाद), द्रव्यसंग्रह, (मूकमाटी, पृ. १०)।
अष्टपाहुड़, नियमसार, द्वादश अनुप्रेक्षा, समन्तभद्र की
22 मई 2009 जिनभाषित
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