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दिगम्बर जैन परम्परानुसार तीर्थंकर भगवान् चातुर्मास नहीं करते!
प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती जी जैनशासन के वर्तमानकालीन २४वें तीर्थंकर | उचित है? क्या आगम-विरुद्ध लेख छापने में उनकी भगवान् महावीर के बारे में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ | कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है? अथवा क्या भगवान समाज में व्याप्त हैं। जैसे उनका ब्राह्मणी के गर्भ से | महावीर के जीवन का दिगम्बर जैन आगमग्रंथों से कोई त्रिशला के गर्भ में इन्द्र द्वारा गर्भ हरण कराना, विवाह | संबंध स्वीकार्य नहीं है? होना, दीक्षा के बाद यत्र-तत्र विचरण करते हुए चण्डकौशिक पण्डितप्रवर श्री सुमेरचंद जैन दिवाकर ने 'महाश्रमण नाग द्वारा उन पर विष छोड़ा जाना एवं जनसाधारण द्वारा | महावीर' नामक ग्रंथ में तीर्थंकरों के चातुर्मास के निषेध यातनाएँ दिया जाना इत्यादि।
का उल्लेख करते हुए स्पष्ट लिखा है किभ्रांतियों की इसी श्रृंखला में कुछ लोगों ने भगवान् | 'वर्धमानचरित्र (१७/१२७) में कहा हैमहावीर के ४२ चातुर्मास लिख दिए हैं, जबकि दिगम्बर | परिहारविशुद्धि-संयमेन प्रकटं द्वादशवत्सरांस्तपस्यन्। जैनग्रंथों में कहीं भी उनके चातुर्मासों का उल्लेख नहीं स निनाय जगत्रयैकबंधुभगवान् ज्ञातिकुलामलाम्बरेन्दुः॥ है। इसलिए दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों एवं आगमज्ञाता अर्थात् परिहार विशुद्धि संयम को प्राप्त करके बारह विद्वानों को, लेखकों को इस विषय पर गंभीरता से चिंतन | वर्ष तक तपस्या करते हुए भगवान् तीनों लोकों के बंधु करना चाहिए।
ज्ञातृवंश के निर्मल आकाश के चंद्रमा सदृश सुशोभित भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा होते थे। प्रकाशित 'जैन तीर्थ वंदना' के अक्टूबर २००८ अंक इसी संयमी का वर्षाकाल में विहार- इस में पृ० २२ पर "तीर्थंकर महावीर का चातुर्मास काल" | परिहारविशुद्धि संयम की यह विशेषता है कि वह मुनि-: नामक एक लेख प्रकाशित हुआ, जो दिगम्बर जैन आगम | 'सदापि प्राणिवधं परिहरति'= सदा प्राणियों के वध का के प्रतिकूल है। इस लेख में लेखक ने भगवान् महावीर | परिहार करता है (गो.जी.सं.टीका, पृ. ८८१)। इस संबंध के द्वारा ४२ चातुर्मास करना सिद्ध किया है। जैसे- | में यह भी लिखा है कि परिहारविशुद्धिसंयमी रात्रि को
"भगवान् महावीर ने बयालीस चातुर्मास इस धरा | विहार छोड़कर तथा संध्या के तीन समयों को बचाता पर बिताये।"
हुआ, सर्वदा दो कोस प्रमाण विहार करता है। इस संयमी वैशाली, वाणिज्यग्राम, राजगृही, चम्पा, मिथिला, | के लिए वर्षाकाल में विहार त्याग नहीं कहा गया है, श्रावस्ती, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, परिक्षेत्र में विहार कर | | क्योंकि इस ऋद्धि के द्वारा वर्षाकाल में जीव का घात चालीसवाँ 'मिथिला' में बिताया, यहाँ से फिर 'राजगृही' नहीं होता है। इसलिए इस संयम को प्राप्त महान् साधु को विहार किया। यह वह समय था जब 'अग्निभूति' वर्षाकाल में भी आसक्ति, मोह, ममता आदि का परित्याग एवं 'वायुभूति' गणधर संसार त्याग मोक्ष गये। कर भ्रमण करते हैं।
इकतालीसवाँ चातुर्मास राजगृही में बिताया। वर्षा गोम्मटसार संस्कृत टीका में लिखा हैंव्यतीत होने पर भी प्रस्थान नहीं किया, यहीं 'अव्यक्त' परिहारर्द्धिसमेतो, जीवः षट्कायसंकुले विहरन्। 'अकाम्पिक', 'मौर्यपुत्र', 'गणिक' गणधरों ने देह त्याग पयसेव पद्मपत्रं, न लिप्यते पापनिवहेन॥ मोक्ष प्राप्त किया।
परिहारविशुद्धिसंयुक्त जीव (मुनि) छह कायरूप यह एक विचारणीय विषय है कि ऐसे आगम जीवों के समूह में विहार करता हुआ जैसे कमलपत्र विरुद्ध लेखों का क्या दिगम्बर जैन पत्र-पत्रिकाओं में | जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार वह पाप से लिप्त छपना उचित है? क्या पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक, | नहीं होता। जब इस संयम के धारक के विषय में उपर्युक्त संचालक आदि को आगमज्ञान से इतना अनभिज्ञ रहना | बात लिखी है, तब यह स्पष्ट है कि परिहारविशद्धि
___12 मई 2009 जिनभाषित
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