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सभी तीर्थंकरों की पूजा समान शुभपरिणामोत्पादक
'नवग्रह-अरिष्टनिवारक विधान' में व्यक्त की गयी यह मान्यता भी आगमविरुद्ध है कि भिन्न-भिन्न तीर्थंकर भिन्न-भिन्न ग्रह से उत्पन्न अरिष्ट के निवारक हैं। वस्तुतः कोई भी तीर्थंकर किसी भी जीव के अरिष्ट या दुःख के निवारक नहीं होते, अपितु प्रगाढ़ भक्तिपूर्वक उनके दर्शन-पूजन से जीव में जो शुभपरिणाम उत्पन्न होते हैं, उनसे उसके असातावेदनीय का उदय टलता है और साता-वेदनीय का उदय होता है। इससे उसके दुःख या विपत्ति का निवारण होता है। और ऐसा नहीं है कि तीर्थंकर पद्मप्रभ की पूजा से केवल सूर्यग्रहजनित अरिष्ट के निवारक शुभपरिणाम पैदा होते हों और चन्द्रादि ग्रहों से जनित अरिष्ट का निवारण करनेवाले शभपरिणाम उत्पन्न न होते हों। सभी तीर्थंकर समानरूप से वीतराग होते हैं। अत: किसी भी तीर्थंकर की पूजा से एक ही जैसे शुभपरिणामों की उत्पत्ति होना अनिवार्य है, जो समानरूप से असातावेदनीय के उदय को टालते हैं और सातावेदनीय का उदय कराते हैं, जिससे किसी भी प्रकार के निमित्त से उत्पन्न दुःख का निवारण होता है। किसी तीर्थंकर की पूजा में किसी खास ग्रह से उत्पन्न अरिष्ट का निवारण करनेवाले शुभपरिणामों की उत्पत्ति की सामर्थ्य मानना, अन्यग्रहजनित-- अरिष्ट-निवारक शुभपरिणामों की उत्पत्ति की सामर्थ्य न मानना, तीर्थंकरों की वीतरागता को अलग-अलग प्रकार का मानना है, जो महामिथ्या मान्यता है। इस मिथ्या मान्यता के कारण या ग्रहों को शान्त करने के लिए तीर्थंकरविशेष की पूजा मिथ्या क्रिया है। किसी ग्रह को किसी अन्य ग्रह का पुत्र मानना आगमविरुद्ध
'नवग्रह-अरिष्टनिवारक विधान' में शनिग्रह को सूर्य का पुत्र और बुध को चन्द्र का पुत्र बतलाया गया है। यथा'शनि-अरिष्टनिवारक श्री मुनिसुव्रत पूजा' के अन्तर्गत पूजा के निम्नालिखित पद कहे गये हैं
"जन्म लग्न गोचर समय, रविसुत पीड़ा देय। तब मुनिसुव्रत पूजिये, पातक नाश करेय॥ मुनिसुव्रत जिनराज काज निज करन को, सूर्यपुत्र ग्रह क्रूर अरिष्ट जु हरन को। आह्वानन कर तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः करो,
होय सन्निधि जिनराय भव्य पूजा करो। ॐ ह्रीं शनि-अरिष्टनिवारक श्री मुनिसुव्रत जिन अत्र अवतर अवतर--- ।" बुधग्रह-अरिष्टनिवारक अष्ट-जिन-पूजा में बुधग्रह को शशि (चन्द्र) का पुत्र कहा गया है
शशि-सुत अरिष्ट सब दूर जाय।
भव पूजे अष्ट जिनेन्द्र पाय॥ यह हिन्दूधर्मगत मान्यता का अनुकरण है। जिनशासन में चारों निकायों के देवों को उपपाद-जन्मवाला माना गया है, गर्भजन्मवाला नहीं। अतः देवों के माता-पिता नहीं होते। 'नवग्रह-अरिष्टनिवारक-विधान' में एक ग्रह को दूसरे ग्रह का पुत्र मानना जिनागमविरुद्ध है।
इस प्रकार जैनमत में मवग्रहपूजा जिन मान्यताओं पर खड़ी की गई है, वे सब अजैन मान्यताएँ हैं, जैन नहीं। ग्रहों को शुभ-अशुभ मानकर उन्हें शुभ-अशुभ फलदायक मानना और अशुभ फल-निवारण के लिए उनकी पूजा करना या भिन्न-भिन्न तीर्थंकर को भिन्न-भिन्न ग्रह के अरिष्ट का निवारक मानकर उनकी पूजा से अरिष्ट-निवारण मानना, ये मिथ्या मान्यताएँ हैं। इन मान्यताओं को निर्मल जिनशासन में ढकेलकर उसे मलिन बनाने का प्रयत्न और जीवों के मिथ्यात्ववर्धन का काम किया जा रहा है।
रतनचन्द्र जैन
6 अप्रैल 2009 जिनभाषित
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