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________________ ग्रह साता-असातावेदनीय के उदय में निमित्त भी नहीं जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार ग्रहों को जीव के सुख-दुःख का उत्पादक़ सिद्ध करने के लिए ग्रहपूजाप्रवर्तक जैन विधानाचार्यों ने यह युक्ति प्रस्तुति की है, कि शुभाशुभ ग्रहों के उदय से प्रेरित होकर ही जीवों के साता-असातावेदनीय कर्मों का उदय होता है। किन्तु यह युक्ति जिनागम-विरुद्ध है। जिनागम के अनुसार साता-असातावेदनीय कर्मों का उदय तभी होता है, जब उनके उदय के अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव या भव उपस्थित होते हैं। और यह आगम द्वारा निर्धारित है कि कौन सा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और - भव सातावेदनीय के उदय के अनुकूल होता है और कौन सा असातावेदनीय के उदय के अनुकूल। कर्मसिद्धान्त के विशेषज्ञ मनीषी पं० रतनचन्द्र जी मुख्तार इस प्रश्न का समाधान करते हुए लिखते हैं- "कार्य के लिए अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणों की आवश्यकता होती है। कर्मोदय भी कार्य है; अतः कर्मोदय के लिए भी बाह्य द्रव्य, क्षेत्र आदि की आवश्यकता है। कसायपाहुडसुत्त-गाथा ५९ के उत्तरार्ध में कहा है-"खेत्तभवकालपोग्गलट्ठिदिविवागोदयखयदु।" इसकी विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार चूर्णिसूत्र २२० में लिखते हैं- "कम्मोदयो खेत्तभवकालपोग्गलट्ठिदिविवागोदयक्खओ भवदि।" अर्थात् कर्मोदय क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्य के आश्रय से स्थिति के विपाकरूप होता है, इसी को उदय या क्षय क "क्षेत्र पद से नरकादि क्षेत्र का, भव पद से जीवों के एकेन्द्रियादिक भवों का, काल पद से शिशिर, वसन्त आदि काल का अथवा बाल, यौवन, वार्धक्य आदि कालजनित पर्याय का और पुद्गल पद से गन्ध, ताम्बूल, वस्त्र, आभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण होता है। सारांश यह है कि द्रव्य, क्षेत्र काल भव आदि का निमित्त पाकर कर्मों का उदय और उदीरणारूप फलविपाक होता है।" (पं० रतनचन्द्र मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व / भाग १ / पृष्ठ ४४५)। गोम्मटसार-कर्मकाण्ड में भी कहा गया है कि साता-वेदनीय के उदय के नोकर्म (निमित्तभूत पुद्गलद्रव्य) इष्ट (रुचिकर) भोजन-पान आदि तथा असातावेदनीय के उदय के नोकर्म अनिष्ट (अरुचिकर) भोजनपान आदि हैं-'सादेदरणोकम्मं इट्ठाणि?ण्णपाणादि।' (गाथा ७३)। पं० रतनचन्द्र जी मुख्तार आगे लिखते हैं-"साता और असाता, दोनों का आबाधाकाल समाप्त हो जाने से एक साथ दोनों प्रकृतियों के निषेक उदय होने योग्य होते हैं। किन्तु इन दोनों प्रकृतियों में से एक का स्वमुख उदय (फलानुभवन) होगा और दूसरी प्रकृति का परमुख उदय होगा। इन दोनों प्रकृतियों में से जिसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव होंगे, उसी का फलानुभवनरूप स्वमुख उदय होगा और दूसरी प्रकृति का स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा परमुख उदय होगा।" (उपर्युक्त ग्रन्थ / भाग १ / पृ०४४६) । यहाँ दो बातें ध्यान में रखने योग्य हैं। पहली यह कि कसायपाहुडसुत्त, उसकी चूर्णि तथा गोम्मटसारकर्मकाण्ड में कर्मोदय के जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव रूप बाह्य हेतु बतलाये गये हैं, उनमें द्रव्य के अन्तर्गत केवल पुद्गलद्रव्य को लिया गया है, अन्य द्रव्यों को नहीं। दूसरी यह कि साता-असातावेदनीय कर्मों के उदय में उसी पुद्गलद्रव्य को बाह्य हेतु बतलाया गया है, जो जीव के लिये इष्ट (रुचिकर, प्रिय) और अनिष्ट (अरुचिकर, अप्रिय) होता है, अन्य को नहीं। चूँकि ग्रह-नक्षत्र पुद्गल द्रव्य नहीं हैं, अपितु जीव द्रव्य हैं, इसलिए वे उपर्युक्त आर्षवचनों के अनुसार साता-असातावेदनीय कर्मों के उदय के लिए अनुकूल निमित्त या नोकर्म नहीं हैं। और यदि जीवद्रव्य को भी साता-असाता के उदय का निमित्त माना जाय तो भी ग्रह-नक्षत्र साता-असाता कर्मों के उदय के लिए अनुकूल द्रव्य नहीं हो सकते, क्योंकि वे जीव को न मित्र के समान इष्ट (प्रिय) लगते हैं न शत्रु के समान अनिष्ट (अप्रिय)। इस कारण असातावेदनीय के उदय में हेतु न बन पाने से उनके द्वारा जीव के लिए कोई भी अरिष्ट (दुःख या विपत्ति) उत्पन्न नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप अरिष्ट-निवारण के लिए उनकी पूजा व्यर्थ है। - अप्रैल 2009 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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