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________________ कर्मोदय को ग्रहों के अधीन कर दिया गया बँकि जिनागम में जीव के स्वकीय साता-असाता-वेदनीय कर्मों के उदय को जीव के लौकिक सुखदुःख, सम्पन्नता-विपन्नता, सरोगता-नीरोगता आदि का हेतु बतलाया गया है, इससे ग्रहों के उदय को जीव के सुख-दुःख आदि का हेतु बतलाया जाना असत्य सिद्ध होता है। अत: ग्रहपूजा-प्रवर्तक जैन ज्योतिषियों ने यह मिथ्या युक्ति उपस्थित की है, कि जीव के कर्मों का उदय ग्रहों के अनुसार होता है। अर्थात् जब शुभ ग्रह का उदय होता है, तब जीव के सातावेदनीय कर्म का उदय होता है और जब अशुभ ग्रह का उदय होता है, तब असातावेदनीय कर्म उदय में आता है। इस प्रकार जीव के सुख-दुःख ग्रहों के हाथ में हैं। देखिये, कवि मनसुखसागरकृत 'नवग्रह-अरिष्टनिवारक-विधान' (पृष्ठ १) के ये शब्द आदि अन्त जिनवर नमो, धर्म प्रकाशन हार। भव्य-विघ्न-उपशान्त को ग्रहपूजा चितधार। कालदोष परभावसों विकलप छूडे नाहिं। जिनपूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहिं॥ इस ही जम्बूद्वीप में रवि-शशि मिथुन प्रमान। ग्रह नक्षत्र तारा - सहित ज्योतिषचक्र प्रमान॥ तिन ही के अनुसार सौं कर्मचक्र की चाल। सुखदुख जाने जीव को, जिनवच नेत्र विशाल॥ कोई भी ग्रह शुभ या अशुभ नहीं ग्रहों के पूजनीय होने की मिथ्या धारणा किसी ग्रह को शुभ और किसी को अशुभ अथवा एक ही ग्रह को किसी दशा में शुभ और किसी दशा में अशुभ मान लेने से उत्पन्न हुई है। जब किसी ग्रह को शुभ (शुभफल देनेवाला) मान लिया जायेगा और किसी को अशुभ (अशुभफल देनेवाला), तब शुभग्रह की पूजा का भाव मन में आयेगा ही और भयवश अशुभ ग्रह के प्रकोप को शान्त करने के लिए उसकी पूजा का भाव हृदय में आये बिना नहीं रहेगा, क्योंकि यह मानवस्वभाव है। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार विचार करने पर सिद्ध होता हे कि कोई भी ग्रह या नक्षत्र न शुभ होता है और न अशुभ। जैन कर्मसिद्धान्त बतलाता है कि जीव को शारीरिक सुख, धनधान्य, पुत्रकलत्रादि शुभ फल साता-वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होते हैं और सातावेदनीय कर्म का बन्ध जीव के स्वकीय शुभपरिणामों से होता है और शुभपरिणामों की उत्पत्ति परमार्थ देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति, पंचपरमेष्ठी की उपासना, जिनबिम्बदर्शन, स्वाध्याय अनुकम्पाभाव, अणुव्रतादि के पालन तथा मन्दमिथ्यात्व-मन्दकषायभाव से होती है, अतः पंचपरमेष्ठी, जिनबिम्ब, जिनालय आदि ही शुभ द्रव्य हैं। ग्रह-नक्षत्र तो मिथ्यादृष्टि, असंयमी ज्योतिष्क देव हैं, अतः उनके दर्शन-पूजन से शुभपरिणामों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। सूर्य, चन्द्र और तारों के दर्शन तो हमें दुर्लभ हैं, उनके विमानों को ही हम प्रतिदिन देखते हैं, लेकिन उन्हें देखकर हमारे मन में शुभपरिणाम उत्पन्न नहीं होते। अतः वे शुभ द्रव्य नहीं है। इसी प्रकार उनके दर्शन से अशुभपरिणाम भी उत्पन्न नहीं होते, इसलिए वे अशुभ द्रव्य भी नहीं हैं। इस तरह वे हमारे लिए न शुभफल की प्राप्ति में सहायक होते हैं. न अशभफल की। फलस्वरूप वे किसी भी प्रकार पुजा के योग्य नहीं हैं। डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ज्योतिषाचार्य भी मानते हैं कि "ग्रह या अन्य प्राकृतिक कारण किसी व्यक्ति का इष्ट अनिष्ट-सम्पादन नहीं करते, बल्कि इष्ट या अनिष्टरूप में घटित होनेवाली भावी घटनाओं की सूचना देते हैं।" (प्रस्तावना / भद्रबाहु-संहिता / पृष्ठ १९ / भारतीय ज्ञानपीठ)। 4 अप्रैल 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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