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________________ है। आयुर्वेद के अनुसार रोग त्रिदोषात्मक होते हैं और ग्रह भी अपनी प्रकृति के कारण वात, पित्त और कफ विकार उत्पन्न करते हैं। शरीर में जब किसी भी प्रकार का विकार अधिक मात्रा में उत्पन्न हो जाता है, तो वही रोग का कारण बनता है। रोग-शमन के लिए यदि ग्रहों की शान्ति के उपाय कर लिये जायँ, तो रोग से मुक्ति मिलना संभव है। ग्रहजनित रोग और उसकी शान्ति के उपाय क्या हैं, आइये इस पर विचार करें "सूर्य- हृदय, पेट, पित्त दायीं आँख, घाव, गिरना, रक्तप्रवाह में बाधा, क्षयरोग आदि, अशुभ सूर्य का वजह से होते हैं। इसके लिए रुद्राभिषेक करायें, सूर्यस्तोत्र का पाठ या सूर्यमंत्र का जप कर लें। "चन्द्र- यदि चन्द्र अनिष्टकारी हो, तो बायीं आँख, छाती, दिमाग की परेशानी, महिलाओं में अनियमित मासिकचक्र जैसे विकार उत्पन्न कर सकता है। इससे बचने के लिए माँ दुर्गा की उपासना, चन्द्रमंत्र का जप या शिव-आराधना कर लें। इन उदगारों से स्पष्ट होता है कि हिन्दू-मान्यता के अनुसार जीवों के जो भी सुख-दुःख, हानिलाभ होते हैं, वे ग्रहों के द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं। यहाँ श्री नोरतन जी बाफना के लेख से केवल दो ग्रहों के प्रभाव उद्धत किये हैं, शेष विस्तारभय से छोड़ दिये हैं। जैनमत मे प्रविष्ट ग्रहसम्बन्धी मान्यताएँ उपर्युक्त हिन्दू मान्यता के अनुसार जैनमत में भी नये पण्डितों एवं मुनियों के द्वारा ग्रहों को शुभअशुभ मानकर जीवों के सुख-दुःख का कर्ता मान लिया गया है और यह मान्यता भी स्वीकार कर ली गयी है कि ग्रहों के द्वारा उत्पन्न किये गये अरिष्ट (दुःख) ग्रहों की पूजा से दूर हो जाते हैं। चूँकि हिन्दूधर्म में ग्रहपूजा के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न देव-देवियों की पूजा से भी भिन्न-भिन्न ग्रहों के प्रकोप का शान्त होना बतलाया गया है, इसलिए जैनधर्म में भी ग्रहपूजा के साथ भिन्न-भिन्न ग्रह की न्ति के लिए भिन्न-भिन्न तीर्थंकर की पजा को आवश्यक मान लिया गया। जैसे तीर्थंकर पद्मप्रभ को सूर्यग्रह-अरिष्टनिवारक, चन्द्रप्रभ को चन्द्र-अरिष्ट-निवारक, वासुपूज्य को मंगल-अरिष्टनिवारक, विमलनाथ अनंतनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, नमिनाथ और महावीर इन आठ को बुधग्रह-अरिष्टनिवारक, ऋषभदेव, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ इन आठ को गुरुग्रह-अरिष्टनिवारक, पुष्पदन्त को शुक्र-अरिष्टनिवारक, मुनिसुव्रत को शनि-अरिष्टनिवारक, नेमिनाथ को राहु-अरिष्टनिवारक तथा मल्लिनाथ एवं पार्श्वनाथ भगवान् को केतु-अरिष्टनिवारक मान लिया गया है। (देखिये, कविवर मनसुखसागर-कृत 'नवग्रह-अरिष्टनिवारक-विधान')। कविवर मनसुखसागर को यह अहसास था कि जैनधर्म में पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य देवदेवियों की पूजा को मिथ्यात्व माना गया है, इसलिए उन्होंने इस मान्यता का निषेध करने के लिए उक्त पुस्तक में जोर देकर कहा है कि जिनपूजा के प्रसंग में ग्रहपूजा मिथ्या नहीं है- 'जिनपूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहिं।' (पृष्ठ १)। ग्रहपूजा के वर्णन का संकल्प करते हुए वे उक्त पुस्तिका के आरंभ में लिखते हैं प्रणम्याद्यन्ततीर्थेशं धर्मतीर्थप्रवर्तकं, भव्यविघ्नोपशान्त्यर्थं ग्रहाा वर्ण्यते मया। मार्तण्डेन्दुकुजसोम्य-सूरसूर्यकृतान्तकाः, राहुश्च केतुसंयुक्तो ग्रहशान्तिकरा नव॥ अनुवाद-"धर्मतीर्थ के प्रवर्तक आदि और अन्तिम (अथवा आदि से लेकर अन्त तक के) तीर्थंकरों को प्रणाम कर मैं ग्रहपूजा का वर्णन करता हूँ, जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन नवग्रहों को शान्त करती है।" यहाँ 'ग्रहाळ वर्ण्यते मया' इन स्पष्ट शब्दों में ग्रहपूजा के वर्णन की प्रतिज्ञा की गयी है। - अप्रैल 2009 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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