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________________ सम्पादकीय नवग्रह-प्रकोप : एक मिथ्या अवधारणा मेरे पास दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र माँगीतुंगी जी से एक निमंत्रणपत्र आया है, जिसमें शनिवार २५ अप्रैल | २००९ को शनिग्रह-प्रकोप-निवारक भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के महामस्तकाभिषेक की सूचना है और आग्रह किया गया है कि भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के दर्शन-अभिषेक से शनिग्रह का प्रकोप दूर होता है, अतः सपरिवार पधारकर महामस्तकाभिषेक में शामिल हों। आजकल प्रायः सभी दिगम्बर जैनमन्दिरों में नवग्रह-अरिष्टनिवारक विधान नाम की छोटी सी पुस्तिका देखने को मिल जायेगी, जिसके लेखक कविवर मनसुखसागर जी हैं। ये लगभग १०० वर्ष पूर्व हुए थे, ऐसा इस पुस्तिका की श्री बालमुकुन्द जी दिगम्बरदास जैन, सिहौर छावनी द्वारा वीरनिर्वाण संवत् २४४६ (आज से ८९ वर्ष पूर्व) में लिखित प्रथमावृत्ति की प्रस्तावना से ज्ञात होता है। इसका तात्पर्य यह है कि लगभग १०० वर्ष से दिगम्बरजैन-परम्परा में नवग्रह पूजा प्रचलित है। आज तो मुनिराजों के आशीर्वाद से इन्दौर (म० प्र०), जयपुर आदि कुछ नगरों मे नवग्रह-मन्दिर भी बन गये हैं, जिनमें नियमितरूप से नवग्रहपूजा होती हैं। यह जिनशासन की विडम्बना ही है कि इसमें समय-समय पर जिनागम-विरुद्ध मिथ्या मान्यताओं एवं मिथ्या-प्रवृत्तियों का प्रवेश होता रहा है और वे पल्लवित-पुष्पित होती रही हैं। - सर्वप्रथम इसमें सांसारिक सुखों एवं धनसमृद्धि की आकांक्षा से शासन देव-देवियों की पूजा का प्रवेश हुआ। फिर आठवीं शती ई० के आदिपुराणकर आचार्य जिनसेन ने जिनशासन में अग्निपूजा का प्रवेश कराने की चेष्टा की। आगे चलकर एक वास्तुशास्त्रीय मिथ्यात्व जिनशासन में प्रविष्ट हुआ। जिनागम का वचन है कि “जीव के लौकिक सुख-दुःख, रोग-आरोग्य, समृद्धि-दारिद्र्य आदि के हेतु उसके स्वोपार्जित साता-असातावेदनीय नामक कर्म हैं।" किन्तु कुछ नवोदित जैनवास्तुशास्त्रियों ने इस आगमवचन को ताक पर रखकर यह मान्यता प्रचलित की है कि मनुष्य के सुख-दुःख, रोग-आरोग्य, समृद्धि-दारिद्र्य, अपमृत्यु कुलक्षय, धनक्षय आदि का कारण वास्तुशास्त्र के अनुकूल और प्रतिकूल निर्मित गृह में वास करना है। उसके बाद नवग्रहपूजा के मिथ्यात्व ने जिनशासन में कदम रखा। इसने भी जिनोपादिष्ट कर्मसिद्धान्त को पृष्ठभूमि में डालकर यह मिथ्या मान्यता चलाई है कि मनुष्यों के दुःख, रोग, दारिद्र्य, अपमृत्यु आदि अरिष्ट सूर्य, चन्द्र, शनि आदि नौ ग्रहों के कुपित होने से उत्पन्न होते हैं और उनका यह प्रकोप उनकी पूजा करने से शान्त हो जाता है। अब एक नये मिथ्यात्व का जैनधर्म में प्रवेश कराया गया है, वह है नवरात्रोत्सव। इस की चर्चा जिनभाषित के फरवरी २००९ के अंक में की गयी है और वास्तशास्त्रगत मिथ्यात्व २००९ के 'जिनभाषित' मे किया गया है। यहाँ जिनशासन में नवग्रहपूजा के प्रवेश पर चिन्तन किया जा रहा है। हिन्दू-ज्योतिषशास्त्रीय मान्यताएँ भोपाल (म०प्र०) से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'पत्रिका' (रविवार, १५ मार्च, २००९) में पृष्ठ १३ पर श्री नोरतन बाफना लिखते हैं- "ज्योतिषशास्त्र के द्वारा बीमारियों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। हमारे शरीर के विभिन्न अंगों पर अलग-अलग ग्रहों का प्रभाव होता है। ग्रह से प्रभावित अंग पर ही रोग, तब उत्पन्न होता है, जब ग्रह की दशा या अन्तर्दशा आती है। शुभ ग्रहों की दशा या अन्तर्दशा में शुभ फल मिलते हैं और अशुभ ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा होने पर पीड़ा या रोग होने की संभावना होती 2 अप्रैल 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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