________________
मुनि श्री क्षमासागर जी
की कविताएँ
आकाश
दोहरे गणित जिन्दगी में हमारे चाहे । अनचाहे बहुत कुछ हो जाता है हमारा मनचाहा हुआ तो लगता है यह हमने किया हमारा अनचाहा हुआ तो लगता है शिकायत करें। पूछे कि यह किसने किया? जीवन-भर इसी दोहरे गणित में हम जीते हैं
और समझ नहीं पाते कि अच्छा-बुरा चाहा-अनचाहा अपने लिए सब हम ही करते हैं अपनी मौत की इबारत अपने हाथों हम ही लिखते है
रात आती है सारा आकाश तारों से भर जाता है दिन होते ही मानो सब झर जाता है इसमें सोचो तो सोचते ही रहो हाथ क्या आता है? जो समझते हैं वे समझते हैं कि डूबते / ऊगते सितारे हैं आकाश अकेला था अकेला ही रह जाता है।
'पगडंडी सूरज लक मेघाभार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org