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________________ में आनेवाला सातावेदनीय अनन्तगुणा अनुभागवाला होता | असाता का उदय होता है उस काल में केवल उसका है, जिस कारण से असातावेदनीय का उदय प्रतिहत हो | ही उदय नहीं होता, किन्तु उससे अनन्तगुणी : जाता है। इस प्रकार दुःखरूप फल के अभाव में भी साता के साथ वह उदय में आता है। माना कि उसका असातावेदनीय का स्वमुख उदय मानना आगमसम्मत है। उस समय स्वमुख से उदय है, पर वह प्रतिसमय बँधने कुछ आगम प्रमाण इस प्रकार हैं वाले साता कर्म परमाणुओं की निर्जरा के साथ ही होता १. श्री धवला पुस्तक १२/२४ में कहा है- 'प्रश्न | है, इसलिए असाता का उदय वहाँ क्षुधादि रूप वेदना है कि असातावेदनीय का वेदन करनेवाले तथा क्षुधा तृषा | का कारण नहीं हो सकता। आदि ११ परिषहों द्वारा बाधा को प्राप्त हुए केवली | जिज्ञासा- क्या मुनि ही अगले भव में इन्द्र बनते भगवान्.....।' हैं या अन्य भी? २. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृष्ठ ३०३ पर कहा है- | समाधान- इस प्रकरण में श्री आदिपुराण भाग 'असातावेदनीय के विद्यमान होते हये भी मोहनीय के | २ पृष्ठ २५७ पर कहा हैअभाव में असमर्थ होने से, वे केवली भगवान् को क्षुधा तथायोगं समाधाय कृतप्राणविसर्जनः। सम्बन्धी दु:ख को करने में असमर्थ हैं। इन्द्रोपपादमाप्नोति गते पुण्ये पुरोगताम्॥ १०९।। ३. प्रवचनसार गाथा २० की तात्पर्यवृत्ति टीका इन्द्राः स्युस्विदशाधी शास्तेषूत्पादस्तयोबलात्। में इस प्रकार कहा है- 'केवली भगवान् के असातावेदनीय यःस इन्द्रोपपादः स्यात्क्रियाऽर्हन्मार्गसेविनाम्॥१९१॥ के उदय की अपेक्षा सातावेदनीय का उदय अनन्तगुणा अर्थ- ऊपर लिखे अनुसार योगों का समाधान है। इस प्रकार शक्कर की बड़ी राशि के बीच में नीम | कर, अर्थात् मन, वचन, काय को स्थिर कर जिसने प्राणों की एक कणिका की भांति असातावेदनीय का उदय का परित्याग किया है, ऐसा साधु पुण्य के आगे-आगे होने पर भी नहीं जाना जाता है। चलने पर इन्द्रोपपाद क्रिया को प्राप्त होता है॥ १९० ॥ ४. राजवार्तिकक अध्याय ९/११ की टीका में कहा देवों के स्वामी इन्द्र कहलाते हैं, तपश्चरण के बल से है- अन्तरायकर्म का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शभ | उन इन्द्रों में जन्म लेना इन्द्रोपपाद कहलाता है। वह इन्द्रोपकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से, प्रक्षीणसहाय वेदनीय- | पाद क्रिया अर्हत्प्रणीत मोक्षमार्ग का सेवन करनेवाले जीवों कर्म (असातावेदनीय) विद्यमान रहकर भी अपना कार्य | के ही होती है। १९१॥ नहीं कर सकता। उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार महान तपस्वी, मोक्षमार्ग ५. सर्वार्थसिद्धि पृ. ३३९ पर कहा है- 'केवली | पर चलने वाले साधु ही इन्द्रपद प्राप्त करते हैं, अन्य जिन के साता का आस्रव सदाकाल होने से उसकी निर्जरा | नहीं। भी सदाकाल होती रहती है। इसलिए जिस काल में । १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-२८२ ००२, उ० प्र० कुरगुवाँ जी (झाँसी, उ.प्र.) में पंचकल्याणक सम्पन्न पंचकल्याणकों में लाखों, करोड़ों की धनराशि पानी की तरह बहा देने की परम्परा से हटकर बिना हाथी-घोड़े और तामझाम के विशाल भव्य भगवान् नेमीनाथ जिनबिम्ब प्रतिष्ठा पंचकल्याणक एवम् अहिंसा दिव्य गजरथ का भव्य आयोजन जैन तीर्थ करगुवाँ जी में दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य अध्यात्मयोगी मुनिश्री सरल सागर जी महाराज के सान्निध्य में २३ फरवरी से १ मार्च २००९ तक सम्पन्न हो गया। इस आयोजन से समूचे भारतवर्ष की जैनसमाज के सामने एक आदर्श स्थापित हुआ है कि समाज का पैसा कैसे सदुपयोग में लगाया जा सकता है, तो वहीं भगवान महावीर की अहिंसा को सही मायने में चरितार्थ भी किया जा सकता है। पूरे पंचकल्याणक में बोलियों को न लगाने का संकल्प इस आयोजन को अनूठा सिद्ध करता है। प्रवीण कुमार जैन (महामंत्री) दिगम्बर जैन पंचायत ३४, चन्द्रशेखर आजाद, झाँसी - अप्रैल 2009 जिनभाषित 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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