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होते हुए यदि मरण करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ आनत प्राणत, आरण-अच्युत और नव ग्रैवेयक विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं । तथा पूर्वोक्त सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या को परिणत होकर यदि मरण करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ ९ अनुदिश और पाँच अनुत्तरवासी देवों में उत्पन्न होते हैं । इस कारण सौधर्मस्वर्ग से लेकर ऊपर के सभी असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है ।
भावार्थ श्री धवला जी के उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ मुनिराजों का सौधर्म कल्प में उपपाद तब ही संभव है जब वे ११वें गुणस्थान की उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या से गिरकर चौथे से सातवें गुणस्थान तक मध्यम तेजोलेश्या में आकर मरण करें। अर्थात् ११ वें गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ मुनिराज मरण करके सौधर्म ऐशान कल्प में उत्पन्न नहीं हो सकते, जब तक कि वे मध्यम तेजोलेश्या में तथा चौथे से सातवें गुणस्थान तक में आकर मरण न करें। यदि वे 'निर्ग्रन्थ' अवस्था में ही मरण करते हैं अर्थात् ११ वें गुणस्थान में मरण करते हैं, तो उनका जन्म अनुदिश और अनुत्तर विमानों में ही होगा, उससे नीचे नहीं ।
प्रश्नकर्ता सौ. चन्द्रप्रभा जैन, रेवाड़ी जिज्ञासा- क्या पुण्य भी कई प्रकार का होता है? समाधान- आचार्यों ने पुण्य के भी विभिन्न भेद किये हैं
१. समयसार गा. २३९ / २४२ की आ. जयसेन की टीका में पुण्य के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा है- कोई एक ( मिथ्यादृष्टि) जीव नवीन पुण्य कर्म के निमित्तभूत शुभकर्मानुष्ठान को भोगाकांक्षा के निदान रूप से करता है, तब वह पापानुबंधी पुण्यरूप राजा कालान्तर में उसको विषयभोग प्रदान करता है। वे निदानबंधपूर्वक प्राप्त भोग भी रावण आदि की भाँति उसको अगले भव में नरकादि दुःखों की परम्परा प्राप्त कराते हैं। (अर्थात् निदान-बंधपूर्वक किये गये पुण्यरूप शुभानुष्ठान तीसरे भव नरकादि गतियों के कारण होने से पापानुबंधी पुण्य कहलाते हैं) कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प समाधि का अभाव होने के कारण अशक्यानुष्ठानरूप विषयकषाय- वंचनार्थं यद्यपि व्रत, शील, दान, पूजादि शुभकर्मानुष्ठान करता है, परन्तु 30 अप्रैल 2009 जिनभाषित
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(मिध्यादृष्टि की भाँति ) भोगाकांक्षारूप निदानबंध से उसका सेवन नहीं करता है, उसका वह कर्म पुण्यानुबंधी है, भवांतर में जिसके अभ्युदयरूप में उदय में आने पर भी वह सम्यग्दृष्टि पूर्वभव में भावित भेदज्ञान की वासना के बल से भोगों की आकांक्षारूप निदान या रागादिक परिणाम नहीं करता है, जैसे भरतेश्वरादि । अर्थात् निदानबन्ध रहित बाँधा गया पुण्य सदा पुण्यरूप से ही फलता है। पाप का कारण कदाचित् भी नहीं होता। इसलिए पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है।
उपर्युक्त प्रमाण में पुण्य के २ भेद बताये गये हैं, पापानुबंधी और पुण्यानुबंधी। जिनके फल स्पष्ट रूप से ऊपर बताये गये ।
२. श्री आदिपुराण भाग २ पृ. ६० में इस प्रकार कहा है
पुण्यं जिनेन्द्रपरिपूजनसाध्यमाद्यं, पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात्, पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥ २१९ ॥ अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने से उत्पन्न होनेवाला पहला पुण्य है सुपात्र को दान देने से उत्पन्न हुआ दूसरा पुण्य है, व्रतपालन करने से उत्पन्न हुआ तीसरा पुण्य है और उपवास करने से उत्पन्न हुआ चौथा पुण्य है। इस प्रकार पुण्य की इच्छा करनेवाले पुरुषों को उपर्युक्त लिखे हुए ४ प्रकार के पुण्यों का संचय करना चाहिये।
इस आगम प्रमाण में पुण्य को ४ प्रकार का बताया गया है। ये दोनों भेद अलग-अलग विवक्षा से किये गये हैं।
प्रश्नकर्ता हजारीलाल जैन, आगरा
जिज्ञासा - तेरहवें गुणस्थान में असातावेदनीय का स्वमुख उदय होता है या वह सातावेदनीय रूप से संक्रमित होकर उदय में आता है?
समाधान- तेरहवें गुणस्थान में असातावेदनीय का स्वमुख उदय पाया जाता है, परन्तु उसकी अनुभाग शक्ति अनन्तगुणी हीन होने तथा मोहनीय कर्म का अभाव होने के कारण उसका अप्रकट सूक्ष्म उदय रहता है। इसके साथ ही केवली भगवान् के विशेष विशुद्धता होने के कारण, उनके प्रति - समय बँधकर अगले समय में उदय
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