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की परम्परा तो अनादि है, परन्तु किसी वृक्ष या बीज । निर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च भरतैरावतेषु केवलिविरहे की अपेक्षा वह सादि है।
जात - संशयस्तन्निर्णयार्थं महाविदेहेषु केवलिसकाशं जिगमिषुरौदारिकेण मे महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निर्वर्तयति । (२/४९/४)
अर्थ- 'च' शब्द उसके प्रयोजन का समुच्चय करने के लिए है । आहारक शरीर के प्रयोजन का समुच्चय करने के लिए 'च' शब्द कहा गया है । तद्यथा - कदाचित् लब्धिविशेष के सद्भाव का ज्ञान कराने के लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थ का निर्धारण करने के लिए और संयम का परिपालन करने के लिए आहारक शरीर निकलता है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में केवलियों का अभाव होने पर महाविदेहक्षेत्र में केवलिभगवान् के पास औदारिक शरीर से जाना तो शक्य नहीं है और असंयम भी बहुत है, अतः संशय का निर्णय करने के लिए प्रमत्तसंयत मुनि आहारक शरीर की संरचना करते हैं ।
श्लोकवार्तिक- शुभं मनः प्रीतिकरं विशुद्धं संक्लेश
लब्धिप्रत्ययं च ॥ २/४७ ॥
सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्देन वैक्रियिकमभिसम्बध्यते । अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द आया है, उससे वैक्रियिक शरीर का सम्बन्ध करना चाहिये ।
राजवार्तिक- वैक्रियिकमित्यभिसम्बध्यते । ( २/४७) अर्थ- वैक्रियिक शब्द को पिछले सूत्र से जोड़ लेना चाहिये ।
श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दस्तूक्तसमुच्चयार्थस्तेन लब्धिप्रत्ययमौपपादिकं च वैक्रियिकमिति संप्रत्ययः ।
अर्थ- 'च' शब्द उक्त के समुच्चय के लिए है, जिससे यह अर्थ हुआ कि वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म से होता है और लब्धिप्रत्यय भी होता है । सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दो वैक्रियिकाभिसम्बन्धार्थः ।
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द वैक्रियिक के सम्बन्ध के रहितमव्याघाति सर्वत्र व्याघातरहितं च शब्दादुक्तविशेषणलिए आया है।
तत्त्वार्थवृत्ति - न केवलमौपपादिकं शरीरं वैक्रियिकं भवति, किन्तु लब्धिप्रत्ययं लब्धिकारणोत्पन्नं शरीरं वैक्रियिकं कस्यचित् षष्ठगुणस्थानवर्तिनो मुनेर्भवतीति वेदितव्यम् ।
अर्थ- केवल उपपाद जन्म से वैक्रियिक शरीर नहीं होता, किन्तु लब्धि के निमित्त से भी कदाचित् छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के भी वैक्रियिक शरीर होता है।
भावार्थ- 'च' शब्द से वैक्रियिक शरीर लब्धिप्रत्यय भी होता है ऐसा समझना चाहिये । शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ २/४९ ॥
सर्वार्थसिद्धि- तस्य प्रयोजनसमुच्चयार्थः 'च' शब्दः क्रियते । तद्यथा - कदाचिल्लब्धिविशेषसद् भावज्ञापनार्थ कदाचित् सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थ च ॥
अर्थ- आहारकशरीर के प्रयोजन का समुच्चय करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। यथा- आहारक शरीर कदाचित् लब्धिविशेष के सद्भाव को जताने के लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थ का निश्चय करने के लिए और संयम की रक्षा के लिए उत्पन्न होता है।
राजवार्तिक- 'च' शब्दस्तत् प्रयोजनसमुच्चयार्थः । तस्य प्रयोजनसमुच्चयार्थश्चशब्दः क्रियते । तद्यथा कदाचिल्लब्धि-विशेषसद्भावज्ञापार्थं कदाचित् सूक्ष्मपदार्थ
20 अप्रैल 2009 जिनभाषित
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समुच्चयम् ।
अर्थ- आहारकशरीर मन को प्रीतिकर होने से शुभ है, संक्लेशरहित होने से विशुद्ध है, बाधारहित होने से अव्याघाती है और 'च' शब्द उपर्युक्त विशेषणों का समुच्चय करने के लिए है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दस्तन्निवृत्तिप्रयोजनविशेषसमुच्चयार्थः । स च स्वस्यर्द्धिविशेषसद्भावज्ञानं सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणं संयमपरिपालनं च प्रयोजनविशेष: कथ्यते । तदर्थमाह्रियते निर्वर्त्यत इत्याहारकम् ।
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द आहारक शरीर की निर्वृत्तिरचना तथा प्रयोजनविशेष का ग्रहण करने के लिए है। अपनी ऋद्धिविशेष का सद्भाव ज्ञात करने के लिए, सूक्ष्म पदार्थ के निर्णय के लिए और संयम के परिपालन के लिए यह शरीर बनता है, यह इसका प्रयोजन है। उपर्युक्त प्रयोजन के लिए जो रचा जाता है वह आहारक है।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकार उक्तसमुच्चयार्थः । तेनायमर्थ:कदाचित् संयमपरिपालनार्थम्, कदाचित्सूक्ष्मपदार्थनिर्णयार्थम्, कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थमाहारकं शरीरं भवति ।
अर्थ- 'च' शब्द उक्त के समुच्चय के लिए है। इसका यह अर्थ है कि कदाचित् संयम के परिपालन के लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थ के निर्णय करने के लिए, कदाचित् लब्धिविशेष के सद्भाव का ज्ञान कराने के
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