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________________ नारकी एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंच की ४-४ लाख और मनुष्यों। सम्बन्धवाले हैं और विशेष की अपेक्षा सादिसम्बन्ध वाले की १४ लाख योनियाँ है। हैं। यथा- बीज और वृक्ष। श्लोकवार्तिक-'च' शब्दः प्रत्येकं समुच्चयार्थ इत्येके, राजवार्तिक- 'च' शब्दो विकल्पार्थः। 'च' शब्दो तमंतरेणापि तत्प्रतीते: पृथिव्यप्तेजोवायुरिति यथा।| विकल्पार्थो वेदितव्य, अनादिसम्बन्धे सादिसम्बन्धे चेति ॥ इतरयोनिभेदसमुच्चयार्थस्तु युक्तश्च शब्दः।। २/४१/१॥ अर्थ- 'च' शब्द प्रत्येक के समुच्चय के लिए है, अर्थ- 'च' शब्द विकल्पार्थक है। 'च' शब्द विकल्प ऐसा कोई कहता है, परन्तु उसके बिना भी प्रत्येक का | के लिए जानना चाहिये, जिससे यह अर्थ है कि तैजस समुच्चय हो जाता है जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु | और कार्मण शरीर का, जीव के साथ अनादिसम्बन्ध है द। इतरयोनि के भेद का समुच्चय करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द आया है। श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दात् सादिसम्बन्धे ते प्रतिपत्तव्ये। सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्द एकैकसमुच्चयार्थः। अर्थ- तैजस और कार्मण शरीर का आत्मा के साथ अर्थ- 'च' शब्द एक-एक के समुच्चय के लिए सादिसम्बन्ध भी है, इसका ज्ञान कराने के लिए 'च' शब्द दिया गया है।। तत्त्वार्थवृत्ति- चकार उक्तसमुच्चयार्थः। तेनायमर्थो सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति-'च' शब्दोऽत्र पक्षान्तरसूचनार्थः। लभ्यते- सचित्ताश्च मिश्रा भविन्त, अचित्ताश्च मिश्रा | कार्य-कारणसन्तत्यपेक्षयाऽनादि-सम्बन्धे, विशेषापेक्षया भवन्ति। शीताश्च मिश्रा भविन्त, उष्णाश्च मिश्रा भवन्ति।। सादिसम्बन्धे च ते जीवस्य बीजवृक्षवदिति तात्पर्यार्थः। संवृताश्च मिश्रा भविन्त, विवृताश्च मिश्रा भवन्ति, मिश्रा । अर्थ- 'च' शब्द पक्षान्तर की सूचना करता है कार्यअप्यन्यैः सह मिश्रा भवन्ति।। कारण के प्रभाव की अपेक्षा तो इन दोनों शरीरों का अर्थ- 'च' शब्द योनियों के समुच्चय के लिए है | जीव के साथ अनादि से सम्बन्ध है और अमुक-अमुक जिससे यह अर्थ होता है कि सचित भी मिश्र होती हैं, | समय पर बँधने की अपेक्षा सादिसम्बन्ध है। जैसे- बीज अचित्त भी मिश्र होती हैं, शीत भी मिश्र होती हैं, उष्ण और वृक्ष का प्रवाहरूप सम्बन्ध तो अनादि से है और भी मिश्र होती हैं, संवत भी मिश्र होती हैं, विवृत भी | अमुक वृक्ष उस बीज से पैदा हुआ, इत्यादि की अपेक्षा मिश्र होती हैं। मिश्र योनियाँ भी अन्य के साथ मिश्र | बीज-वृक्ष का सादिसम्बन्ध है। .. होती हैं। तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् पूर्वपूर्वतैजसकार्मण्यो: भावार्थ- सूत्र में 'च' शब्द एक-एक के समुच्चय | शरीरयोर्विनाशादुत्तरोत्तरयोस्तैजसकार्मण्योः शरीरयोरुत्पादाच्च के लिए है, जिससे योनियों के नव भेद सिद्ध हो जाते | वृक्षाद् बीजवत् बीजात् वृक्षवच्च कार्य-कारणसद्भावः । हैं। यथा- सचित्त योनि, अचित्त योनि, सचित्ताचित्त योनि, सन्तत्या अनादि-सम्बन्धे विशेषापेक्षया सादिसम्बन्धे शीत योनि, उष्ण योनि, शीतोष्ण योनि, संवृत योनि, विवृत | चेत्यर्थः। योनि, और संवृतविवृत योनि। 'च' शब्द से योनियों के | अर्थ- चकार से सादिसम्बन्ध भी है अर्थात् पूर्व८४ लाख भेद भी होते हैं जैसे राजवार्तिक आदि में | पूर्व के तैजस और कार्मण शरीर के विनाश से आगेकहे हैं, यह भी समझना चाहिये। आगे के तैजस और कार्मण शरीर की उत्पत्ति होती है। अनादिसंबन्धे च ॥ २/४१॥ जैसे वृक्ष से बीज के समान और बीज से वृक्ष के समान सर्वार्थसिद्धि-'च' शब्दो विकल्पार्थः। अनादिसम्बन्धे | कार्य-कारण का सद्भाव होने से सन्तति की अपेक्षा से सादिसम्बन्धे चेति। कार्यकारणभावसंतत्या अनादिसंबन्धे, अनादिसम्बन्ध है और विशेषापेक्षा से सादि सम्बन्ध है। विशेषापेक्षया सादिसम्बन्धे च बीजवृक्षवत्। यह इसका अर्थ हुआ। अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द विकल्प को सूचित करने भावार्थ- तैजस और कार्मण शरीर का संसारी जीवों के लिए दिया है, जिससे यह अर्थ हुआ कि तैजस और | के साथ अनादिसम्बन्ध है एवं 'च' शब्द से सादिसम्बन्ध कार्मण शरीर का अनादि सम्बन्ध है और सादि सम्बन्ध | भी है। कार्य-कारण भाव की अपेक्षा अनादिसम्बन्ध है भी है। कार्य-कारण भाव की परम्परा की अपेक्षा अनादि | तथा विशेष की अपेक्षा सादिसम्बन्ध है। जैसे बीज-वृक्ष अप्रैल 2009 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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