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________________ तृतीय अंश तत्त्वार्थ सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता द्वितीय विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ॥ २/२८ ॥ सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दः समुच्चयार्थः । विग्रहवती चाविग्रहा चेति । अर्थ- 'च' शब्द समुच्चय के लिए है। जिससे विग्रहवाली और विग्रहरहित दोनों गतियों का समुच्चय होता है । राजवार्तिक- 'च' शब्दः समुच्चयार्थः । विग्रहवती च अविग्रहा चेति समुच्चयार्थः 'च' शब्दः। उपपाद - क्षेत्रं प्रति ऋज्वी गतिरविग्रहा, कुटिला विग्रहवती । (२ / २८/२) अर्थ- 'च' शब्द समुच्चय के लिए है । विग्रहवाली और विग्रहरहित दोनों के समुच्चय के लिए 'च' शब्द दिया । अर्थात् उपपाद क्षेत्र के लिए जो ऋजु गति होती है वह विग्रहरहित है और जो मोड़वाली गति है वह विग्रहसहित है । श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दादविग्रहा चेति समुच्चयः तेन संसारिणो जीवस्य नाविग्रहागतेरपवादो विग्रहवत्याविधानादिति संप्रत्ययः ॥ अर्थ- 'च' शब्द से अविग्रह गति का समुच्चय हो जाता है, जिससे संसारी जीव की विग्रहवाली गति का विधान कर देने से अविग्रह गति का अपवाद नहीं होता, अर्थात् संसारी जीव की अविग्रह गति का समीचीन विश्वास करना चाहिये। सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दादविग्रहा लभ्यते । अर्थ- 'च' शब्द से अविग्रह अर्थात् मोड़रहित भी गति होती है, यह ग्रहण करना चाहिये । अध्याय मिश्र भी होती हैं, इसका समुच्चय हो जाता है। यदि 'च' पद का यह अर्थ न लिया जाये, तो मिश्र पद पूर्वोक्त का ही विशेषण हो जाता है । राजवार्तिक- 'च' - शब्दः प्रत्येकसमुच्चयार्थः । मिश्राश्चेति 'च' शब्दः क्रियते प्रत्येकसमुच्चयार्थः । इतरथा हि पूर्वोक्तानामेव विशेषणं स्यात्, तेन सचित्तशीतसंवृता सेतरा यदा मिश्रास्तदा योनयो भवन्तीत्ययमर्थो लभ्यते । 'च' शब्दे पुनः सचित्तादयः प्रत्येकं च योनयो भवन्ति मिश्राश्चेत्ययमर्थो लब्ध:.... । (२/३२/६) तद्भेदाश्चशब्दसमुच्चिता: प्रत्यक्षज्ञानि दृष्टा इतरेषामागमगम्याश्चतुरशीतिशतसहस्रसंख्याः ॥ २/ ३२ / २७ ॥ तेषां नवानां योनीनां भेदाः कर्मभेदजनितविविक्तवृत्तयः प्रत्यक्षज्ञानिभिर्दिव्येन चक्षुषा दृष्टा इतरेषां छद्मस्थानामागमेन श्रुताख्येन गम्याश्चतुरशीतिशतसहस्रसंख्या आख्यायन्ते । (२/३२/२७)... उक्तं च Jain Education International णिच्चिदरधादुसत्तय तरुदस वियलिंदिएसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चोद्दस मणुएसु सदसहस्सा ॥ बा.अ. ३५ ॥ अर्थ- 'च' शब्द प्रत्येक के समुच्चय के लिए है । 'मिश्राश्चेति' इसमें 'च' शब्द प्रत्येक के समुच्चयार्थ ग्रहण किया है। यदि 'च' शब्द का ग्रहण नहीं होता, तो पूर्वोक्त सचित्तादि का विशेषण हो जाता। उससे यह शब्दार्थ निकलता है कि सचित, शीत, संवृत जब अचित्त, उष्ण और विवृत से मिश्र हों तब योनियाँ होंगी । 'च' शब्द का प्रयोग कर लेने पर पुनः सचित्त आदि प्रत्येक योनियाँ है तथा मिश्र भी योनियाँ है ऐसा स्पष्ट अर्थ उपलब्ध होता हैं। .'च' शब्द से समुच्चित प्रत्यक्षज्ञानियों तत्त्वार्थवृत्ति चकारादवक्रा च । होती है। अर्थ- 'च' शब्द से अवक्र अर्थात्. ऋजुगति भी के द्वारा दृष्ट और अल्पज्ञानियों के आगमगम्य चौरासी लाख संख्या वाले उनके भेद हैं। कर्मभेदजनित विविक्त वृत्तिवाले उन नव योनियों के भेद प्रत्यक्षज्ञानियों के दिव्यचक्षुओं के द्वारा दृष्ट हैं । तथा इतर छद्मस्थों के श्रुत नामक आगमगम्य चौरासी लाख कहे गये हैं।...... कहा भी है भावार्थ- संसारी जीव की गति मोड़सहित भी होती है एवं मोड़रहित भी होती है। दोनों के समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥ २/३२ ॥ सवार्थसिद्धि - 'च' शब्द समुच्चयार्थः मिश्राश्च योनयो भवन्तीति । इतरथा हि पूर्वोक्तानामेव विशेषणं स्यात् । नित्यनिगोद, अनित्यनिगोद, पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय इनमें प्रत्येक की ७-७ लाख, अर्थ- 'च' शब्द समुच्चयवाची है, जिससे योनियाँ | वनस्पति की १० लाख, विकलेन्द्रिय की ६ लाख, देव, 18 अप्रैल 2009 जिनभाषित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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