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________________ जो अरहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व से जानता । सम्यग्ज्ञान कहते हैं और संकल्प-विकल्प रहित होकर है, वह निज आत्मा को जानता है और उसका मोह | आत्मस्वरूप.में स्थिर होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। अपने (दर्शनमोह या मिथ्यात्व) नष्ट होता है। अरहंत | ज्ञानानंद स्वभाव स्वरूप से अनभिज्ञ रहने से पर्याय में (कार्यपरमात्मा) पद प्राप्त करने के लिए उनके द्रव्य- एकत्व बुद्धि रखकर यह जीव संसार में जन्म मरण के गण-पर्याय की हमसे समानता है यह जानकर उनका | दुःख उठा रहा है। यह शुद्ध पारिणामिक भाव आत्मानुभूति ध्यान करते हुए अपने भीतर के रागादि विकारों को दूर | में प्रकट होता है। समीचीन दृष्टि और स्वकल्याण के करना और उन परमात्मा के अवलम्बन रूप शुभोपयोग | लिए आ० पद्मनन्दि का यह पद्य उल्लेखनीय हैसे आगे अभेदगुणत्व रूप परमपारिणामिक भाव के ध्यान ज्ञानज्योतिरुदैति मोहतमसो भेदः समुत्पद्यते, से परमात्मत्वरूप अपनी पर्याय प्रकट करना हमारा कर्तव्य सानन्दा कृत्कृत्यता च सहसा स्वान्ते समुन्मीलति। यद्येकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवानत्रैव देहान्तरे, यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। देवस्तिष्ठति मृग्यतां स रभसादन्यत्र किं धावति॥ अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः।। अर्थात्- 'दर्शनमोह का नाश होने पर जब ज्ञानज्योति (आ० पूज्यपाद) | प्रगट होती है, तब हृदय में सानन्द कृतकृत्यता का भाव 'जो परमात्मा है, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वह | | उत्पन्न होता है। अपने देह के भीतर ही परमात्मा विद्यमान परमात्मा है, इसलिए मेरे द्वारा मैं ही उपास्य हूँ अन्य | है, वहीं उसे ढूँढ़ना चाहिए, बाहर दौड़ना व्यर्थ है। कोई नहीं'। यह स्वभावभक्ति उक्त अरहन्त-सिद्धदेवभक्ति 'मम स्वरूप है सिद्ध समान' इत्यादि अनेक लोक के पश्चात् का कर्तव्य है। कथन में एक ही आत्मा | प्रसिद्ध उदाहरण हम जानते हुए भी उनके रहस्य को का प्रारम्भ में ध्येय-ध्यातारूप भेद कथंचित् भेददृष्टि से नहीं समझते, क्योंकि कबीर की यह वाणी- 'इस द्वारे माना जाता है, जो अनेकान्त का माहात्म्य प्रकट करता | का देहरा तामे पिउ पहचान' यह कथन अन्यदर्शन के अनुसार सर्वव्यापक ईश्वर का संकेत करता है। जबकि परमशुद्ध निश्चयनय का विषय त्रिकाली ध्रुवत्व | 'मम स्वरूप है सिद्ध समान' यह वाक्य शुद्धद्रव्यार्थिक पारस के समान है, जिसके स्पर्श (आश्रय) से पर्याय | या परमशुद्ध निश्चयनय से कारणपरमात्मा की ओर संकेत में पवित्रता आती है। इसी चैतन्य स्वभाव की प्रतीति | करता है। जैनागमकथित यह आध्यात्मिक दृष्टि ही को निश्चयसम्यग्दर्शन कहते हैं। यर्थाथ स्वरूप में | कल्याणकारिणी है। निजगुणपर्याय में तन्मय आत्म-तत्त्व के ज्ञान को निश्चय । 'वात्सल्यरत्नाकर' से साभार है। पं० मनीष जैन की नियुक्ति पं० मनीष जैन, सागर (म०प्र०) को सर्वोदय जैन विद्यापीठ में सह-व्यवस्थापक (प्रचार विभाग) नियुक्त किया गया है। यदि वे आपके नगर या ग्राम में आयें तो कृपया नवीन सदस्यता ग्रहण करने का कष्ट करें। उनका मोबाइल नं० ९३००७३०४२७ है। गालियों का दान कुछ उद्दण्ड जब बुद्ध को गालियाँ दे चुके, तो बुद्ध हँसते हुए बोले- "भद्र! यह तो बताओ, यदि कोई दाता दान करे और भिक्षु न ले, तो वह वस्तु किसके पास रहेगी?" "दाता के पास।" "ऐसी बात है, तो जो गालियाँ तुम मुझे दे रहे हो, मैं नहीं लेना चाहता।" - अप्रैल 2009 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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