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परमात्मा कहाँ कौन?
पं० नाथूलाल जैन शास्त्री, इन्दौर विश्व, जगत् या लोक पर्यायवाची शब्द हैं । अनंत । चैतन्यरूप परम या शुद्ध पारिणामिक है। क्षायिक भाव जीव, अनंतानंत पुद्गल, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, क्षयनिमित्तक होने से अत्यन्त निर्मल होकर भी पर्याय एक आकाश और असंख्यात काल इनके समूह को विश्व है, जिसके कारण धारण करनेवाले अरहन्त सिद्ध परमात्मा कहते हैं । यह विश्व स्वतःसिद्ध और अनादि अनंत है। कार्य - परमात्मा कहलाते हैं और जो परम पारिणामिकरूप प्रत्येक द्रव्य में अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व कारण परमात्मा को ध्येय बनाकर ही उस पद को प्राप्त प्रमेयत्व और प्रदेशत्व ये सामान्य गुण पाये जाते हैं। अतः हुए हैं, वे अरहन्त सिद्ध परमात्मा सादि अनन्त हैं। अनादिपदार्थों में परिणामी नित्यत्व स्वभाव से ही विद्यमान है। अनन्त तो परम (शुद्ध) पारिणामिकरूप कारण परमात्मा जैनदर्शन की यह व्यवस्था है, जबकि अन्य दर्शन ईश्वर है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र और उसके जगत्कर्तृत्व की मान्यता के कारण प्रायः सब के उक्त १५वें पद का आशय भी यही है । कुछ ईश्वराधीन मानते हैं। जैनदर्शन के अनुसार चेतनास्वरूप आत्मा ही परमात्मा है। वही अनंत ज्ञान - दर्शनसुख वीर्य का निधान है। यह एक नहीं, संख्या से अनंत
वस्तु के अभेद एवं अन्तरंग विषय की मुख्यता से या एक वस्तु की दृष्टि से होनेवाला अभिप्राय निश्चयनय है। उसमें शुद्ध, अशुद्ध एवं परमशुद्ध ये तीन भेद हैं। यों एकदेश शुद्ध और अशुद्ध निश्चयनय भी माने जाते हैं। इनमें परमशुद्ध निश्चयनय का विषय परमपारिणामिकभाव या कारण- परमात्मा है।
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एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्ताम् ॥१५ ॥ आ० अमृतचन्द्र का समयसारकलश । * आत्मा ज्ञायक स्वभाव है। उसकी सिद्धि करनेवालों के द्वारा स्वयं उपास्य और उपासक भाव को प्राप्त होने से दो प्रकार का कहा जानेवाला वह आत्मा अपने स्वरूप में एकत्व को लिये हुए है । अतः उस एकरूपता की उपासना करो।' वह एकरूप शुद्ध परिणामिक भाव है, जिसे कारण परमात्मा कहते हैं। यही परमशुद्धनय दृष्टि से उपादेय या ध्येय है। यह द्रव्य शक्तिरूप से अविनश्वर है। सदा अहेतुक, अनादि अनंत, ध्रुव है । सर्व पर्यायों में जाने वाला, किसी भी पर्याय रूप न रहनेवाला, त्रैकालिक एक है। सर्व विकल्पों को तोड़कर निर्विकल्प निज पारिणामिक भाव में उपयोग लगाने और उस उपयोग की स्थिरता का मूल है। जीव के औपशमिक, क्षायिक औदयिक और क्षायोपशमिक ये चार भाव कर्मनिमित्तक हैं। पारिणामिक कर्मनिरपेक्ष है। पारिणामिक में उक्त दृष्टि परमपारिणामिक के सम्बन्ध में है। किन्तु अशुद्ध पारिणामिक के अन्तर्गत इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व एवं अभव्यत्व भाव भी हैं। ये कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम व उदय की अपेक्षा नहीं रखते। 'इसलिए पारिणामिक कहलाते हैं', परन्तु केवल 16 अप्रैल 2009 जिनभाषित
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वि उपज, ण वि मरइ, बंधु ण मोक्खु करेइ । जिउ परमत्थे जोइया, जिणवरु एउँ भणेइ ॥ ६८ ॥ (परमात्मप्रकाश ) आ० योगीन्द्रदेव के इस उद्धरण के अनुसार "परमार्थ दृष्टि से यह जीव न उत्पन्न होता है और न बंध तथा मोक्ष को करता है।" इस वचन से जिसके बंध और मोक्ष दोनों नहीं हैं, यही भावना मुक्ति का कारण है। अतः इसे ही शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय रूप कहते हैं । यह ध्यानभावना रूप नहीं है, क्योंकि ध्यानभावना पर्याय विनश्वर है, जब कि यह शुद्ध पारिणामिक रूप होने से अविनश्वर है जो दर्शन ईश्वर को जगत्कर्त्ता एवं सर्वव्यापक मानकर उसे आराध्य बनाकर ध्यान करने से मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं, उसके स्थान में जैन दृष्टि प्रत्येक आत्मा में स्वभाव से विद्यमान उक्त निज कारण परमात्मा को मानती है प्राथमिक अवस्था में पूजा और स्वाध्याय द्वारा प्रत्येक मानव का यह कर्त्तव्य है कि वह निम्नलिखित दृष्टि को भलीभाँति समझे
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जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपन्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ ( आचार्य कुन्दकुन्द का प्रवचनसार, ८० )
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