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________________ बरुआसागर, जबलपुर, साढूमल. आदि अनेक स्थानों पर | के तत्त्वों से अवगत किया। देश-विदेशों में जैन तत्वों बीसों विद्यालय खुले। उनमें हजारों छात्रों ने विद्याध्ययन | का प्रचार होने से जैनधर्म के प्रति देशीय, देशान्तरीय किया और जैनधर्म की प्रभावना करने में जुट गये। | विद्वानों की जिज्ञासा बढ़ी और अनादरभाव मिटा। तीसरे पूज्य वीजी ने महा पवित्र सम्मेदशिखर के निकट | श्री अजित प्रसाद जी वकील लखनऊ भी जैनधर्म-प्रभावना ईसरी में उदासीन आश्रम खोलकर मुनियों, योगियों का | के अनुरागी हुये। महान् उपकार किया है। उसी आश्रम में वर्णीजी ने | सेठ मूलचन्द्र जी, नेमीचन्द्र जी सोनी अजमेर ने सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया है। वर्णीजी द्वारा | अजमेर में विशाल मन्दिर बनवाया। इसके दर्शन करने जैनधर्म की महती प्रतिष्ठा बढ़ी है। के लिये हजारों दर्शक आते हैं। देशान्तर के पर्यटक पंचमी-लब्धि : धवल ग्रन्थों का प्रकाशन भी बड़े चाव से अवलोकन करते हैं। इस शतक में जिन सिद्धान्तग्रन्थों का दर्शन करने के लिये जैन | सर सेठ हुकमचन्द्र जी इन्दौर बड़े प्रभावशाली मानव यात्री, जैनबद्री, मूडबिद्री जाया करते थे, इस शताब्दी | हो चुके हैं। उन्होंने अनेक संस्थाएँ खोलकर हजारों छात्रों में सौभाग्य वश गणपति शास्त्री के चातुर्य से वे महादुर्लभ | को उपकृत किया। सेठ माणिकचन्द्र जी पानाचन्द्र जी ग्रन्थ यहाँ उत्तर प्रान्त, मध्यप्रदेश में आ गये और उनकी जे०पी० बम्बई का भी जैनधर्म की प्रभावना का अधिकतर भाषाटीकायें अनेक विद्वानों द्वारा रच ली गयीं तथा मुद्रित | चाव था। इन्होंने तीर्थ क्षेत्र कमेटी की स्थापना करके भी हो गयीं। सैकड़ों जैनों ने उनका स्वाध्याय भी किया। | तीर्थ स्थानों की रक्षा की तथा बम्बई, रतलाम, प्रभृति जो श्रावक उन सिद्धान्तों के अध्ययन के अधिकारी नहीं | नगरों में अनेक छात्रावास बनवाये। लाडनूं में सेठ सुखदेव थे, वे भी हर्षोत्कर्षपूर्वक स्वाध्याय करने में जुट गये। जी, गजराज जी आदि ने विशाल दर्शनीय जैनमन्दिर इस प्रकार जिनागम की भारी प्रभावना हुयी। बनवाया। हजारों जैन और अजैन बन्धु उस मन्दिर का एक छोटा सा कार्य मेरे द्वारा भी सम्पन्न हआ।| अवलोकन करते हैं। इससे भी बड़ा जैनमन्दिर सेठ महातार्किक विद्यानन्दस्वामी-रचित श्लोकवार्त्तिक ग्रन्थ का छदामीलाल जी ने फिरोजाबाद में तैयार किया। प्रतिदिन नाम ही सुनते थे, चौदह वर्ष घोर परिश्रम कर मैंने उस | जैनाजैन बन्धु इस प्रेक्षणीय मन्दिर का श्रद्धा सहित | डेढ़ लाख श्लोक प्रमाण हिन्दी भाष्य लिख | अवलोकन करते हैं और जैनधर्मानुयायी श्रेष्ठी का यश डाला। सौभाग्य से इस तत्त्वार्थ-चिन्तामणि-महाभाष्य का | गाते हैं। राष्ट्रभाषा में प्रकाशन भी हो गया है। श्री पं० वर्धमान वर्तमान कालीन जनतंत्र शासन में भी जैनधर्म का जी शास्त्री सोलापुर के प्रयत्नों से उसके सात सौ, आठ | प्रभाव बढ़ा है। सर्वत्र निर्विरोध मनिविहार हो रहा है। सौ पृष्ठों के छह खण्ड छप चुके हैं। अब केवल सातवाँ | विश्वविद्यालयों में जैन ग्रन्थों का अध्यापन, अध्ययन, खण्ड का छपना शेष है। मुझे स्वयं आश्चर्य है कि | परीक्षण, निरुपद्रव चालू है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रयह पर्वत उठाने के समान विशाल कार्य मुझ छोटे से | वाद का, वर्ण-जाति भेद व्यवहार गौण होकर जैनों को व्यक्ति से कैसे बन पड़ा? श्री पंचपरमेष्ठी और जिनवाणी | भी राज्य में सैनिक अफसरों, मंत्रियों, जजों आदि ऊँचे माता का प्रसाद ही इसका कारण कहना पड़ता है। श्री | पदों पर प्रतिष्ठा मिल रही है। महावीर स्वामी की जय। तेईस वर्षों से घोर परिश्रम के फलस्वरूप इस प्फुट उपलब्धियाँ वर्ष श्री महावीर जयन्ती दिवस की सार्वजनिक छुट्टी राज्य श्रीमान् बैरिस्टर जुगमन्धर दास जी तथा चम्पतराय शासन ने स्वीकृत कर दी है। मेरे स्मृत, विस्मृत अज्ञात जी ने विलायत में जाकर जैनधर्म का प्रचार किया। कतिपय पुस्तकें अंग्रेजी में लिखकर विदेशी विद्वानों को जिनागम | कुपित नहीं होना, 'नहिं सर्वः सर्ववित्।' खैर खून खाँसी खुशी, बैर प्रीति अभिमान। रहिमन दाबे न दबें, जानत सकल जहान॥ तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान। कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान। अप्रैल 2009 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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