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________________ मूलगुणों का पालन, सप्त-व्यसनों का त्याग तथा । सहस्री अति कठिन ग्रन्थ हैं, उसकी हिन्दी टीका लिख सम्यग्दर्शन में भी अनेक अतिचार लग रहे हैं। सभी | रही हैं। तो वर्तमान साधुओं, साध्वियों में धर्मसाधन समुचित श्रावक दूध के धुले हुये नहीं हैं, किसी व्यक्ति में कुछ | हो रहा है। क्वचित् त्रुटि आने से समुदाय दूषित नहीं दोष भले ही पाये जायें. किन्त मनिधर्म और श्रावकधर्म | हो जाता। पालना असम्भव नहीं कहा जा सकता। तीसरी लब्धि : पं० गोपालदासजी बरैया - सैकड़ों वर्षों के पश्चात् कतिपय मुनिजनों के दर्शन | अस्सी वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के मोरेना में पं० होने लगे हैं। व्यवधान पड़ जाने के अनेक कारण हैं। गोपालदास जी का उदय हुआ। इनको जैन सिद्धान्त ग्रन्थों विरहकाल पड़ जाना इतना बुरा नहीं है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों | के प्रचार का भारी उत्साह था। जैन समाज में अनेक के अन्तराल काल पुष्पदंत से लेकर शान्तिनाथ पर्यन्त | संस्कृत विद्यालय खुलें और हजारों आचार्य प्रणीत ग्रन्थों सात अन्तरों में भी असंख्याते वर्षों का धर्मविच्छेद हो | का अध्ययन करें, ऐसी उत्कट भावना लगी हुयी थी। चुका है। तब कोई जिनमन्दिर, जिनचैत्य, तीर्थ-यात्रा, तदनुसार गुरुजी ने मोरेना में भी सिद्धान्त-विद्यालय स्थापित स्वाध्याय, देवपूजा, संयम मुनि श्रावक आदि धर्म, कोई | किया और मुझे न्याय पढ़ाने की गद्दी पर प्रतिष्ठित शेष नहीं थे। किया। गुरु जी उतने ही उद्योगशील थे। उन्होंने अजमेर अब तो श्री महावीर स्वामी की उपदेशपरम्परा | आदि में अनेक शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की ध्वजा फहराई निरन्तराय चालू है तथा मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविकायें | थी और शास्त्रार्थों में गौरवपूर्ण विजय प्राप्त की थी। मोरेना भी पंचम काल के अन्त तक निरन्तर पाये जायेंगे। अतः | विद्यालय में स्वयं स्थिर सत्र में बैठकर गोम्मटसार, सहनशीलता, उदारता, वात्सल्यपूर्वक मुनि मार्ग को स्थायी | त्रिलोकसार, पंचाध्यायी आदि ग्रन्थों को पढ़ाया तथा पं० बनाने में सहयोग देना चाहिये। मनिमार्ग की उत्पत्ति. स्थिति. | खबचन्द्र जी. मक्खनलाल जी. वंशीधर जी. देवकीनन्दन वृद्धि और रक्षा के साधक, प्रेरक, निर्वाहक, आप हम | जी, उमरावसिंह जी को और मुझे, यों प्रौढ़ छात्रों को श्रावकजन ही हैं। सिद्धों के अतिरिक्त छोटी-मोटी त्रुटियाँ | जैन सिद्धान्त का घनिष्ठ विद्वान् बना दिया। आज उनकी सब जीवों में पायी जाती हैं। अहिंसा और ब्रह्मचर्य का | शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में पाँच सौ सिद्धान्तवेदी मनीषी परिपूर्ण पालन करना बारहवें, तेरहवें गुणस्थानों में नहीं | दृष्टिगोचर हो रहे हैं। गुरु गोपालदास जी की तपस्या बताकर अयोगी और सिद्धों में पाया जाता है। द्वारा जैनधर्म का अत्यधिक प्रचार हुआ और पूज्य समन्तभद्र अहिंसा और शील व्रतों की कौन सी त्रुटि है आचार्य के मतानुसार अज्ञान अन्धकार को मिटाकर जिन जो तेरहवें और बारहवें गुणस्थान में नहीं पायी जाती शासन महिमा का प्रचार करने की ठोस भावना लोगों है। उस त्रुटि को सर्वज्ञ जानें या आप अपने अनुभव में प्रभावित हुई। में विचार करें। सर्वथा निर्दोष तो अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी | चतुर्थ लब्धि : पं० गणेशप्रसादजी वर्णी भगवान् हैं। नमस्तेभ्यः। बुन्देलखण्ड झाँसी प्रान्त में पूज्य गणेशप्रसाद जी धर्म बन्धुओ, वर्तमानकालीन इन मुनिवरों में | वर्णी का जन्म हुआ। ये स्वभाव के सरल थे और पिता कतिपय मुनि उग्र तपस्वी हैं, घोर तप करने वाले हैं, | क अनुरूप जन्म से ही जैनधर्म में श्रद्धा रखते थे। मथुरा, इन्द्रियविजयी हैं, कल्याणनिग्रही हैं, सिद्धान्तशास्त्रों का खुरजा, नवद्वीप, काशी आदि स्थानों पर महाक्लेश सहन अन्तःप्रवेशी स्वाध्याय करते हैं। अच्छे उपदेष्टा हैं। स्वर्गीय कर संस्कृत विद्या का उपार्जन किया साथ ही अपनी श्री कुन्थुसागर जी महाराज ने अनेक ग्रन्थ रचे हैं। देशभूषण संचयवृत्ति को ज्ञानसंचय में बढ़ाया। शैवों के गढ़ काशी जी महाराज ने भी कई रचनायें बनायी हैं। एक मुनि | में स्याद्वाद महाविद्यालय स्थापित किया। मैंने भी इस महाराज ने महान् अलंकारपूर्ण महाकाव्य बनाया है। विद्यालय में छह वर्ष तक अध्ययन किया है। अन्य आर्यिका मातायें भी धवला, गोम्मटसार-त्रिलोकसार | भी अनेक विद्वान् धातु, व्याकरण, न्याय, काव्य शास्त्र की गूढ़ चर्चायें करती हैं। कठिन ग्रन्थ श्लोकवार्तिक | आदि का अध्ययन कर शास्त्री आचार्य आदि परिक्षायें का स्वाध्याय करती हैं। उत्तीर्ण कर समाज में जैनधर्म का उद्योत तथा प्रचार कर सोलापुर में एक विदुषी आर्यिका माता जो अष्ट- | रहे हैं। माननीय वर्णी जी की प्रेरणा से सागर, कटनी, 14 अप्रैल 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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