SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सरकार की ओर से यह ऐलान कर दिया गया कि जिसको मेला देखना हो वह प्रसन्नता से देखे नहीं देखना चाहे तो वह घर के भीतर घुस कर बैठे। यदि एक कंकड़ी भी भीतर मकान से फेंकी गयी तो वह मकान गोलियों से उड़ा दिया जायेगा। अब तो विरोधी लोग सब ठण्डे पड़ गये और बड़े उल्लास से जिनेन्द्र यात्रा निकली। उस समय जैनों में हर्ष का सागर हिलोरें ले रहा था । अन्य मेलों में रथ यात्रा जलूस के प्रथम झन्डियाँ ध्वजायें घन्टियों की कतारें निकाली जाती हैं, किन्तु हाथरस में सबसे पहिले हथकड़ियों, बेड़ियों से भरी हुयी गाड़ियाँ निकाली गयीं। भय के मारे विघ्नकार बन्धु सब शान्त बने रहे ब्रिटिश शासन का प्रभाव अनुपम था। पीछे तो खुर्जा, बड़नगर आदि में अनेक पंचकल्याणक मेले हुये तथा निरुपद्रव हुये। सैकड़ों शिखरबन्द जिनमन्दिर बने। जैनों में धन बढ़ा कांस्यभूषण-युग मिटकर रजतभूषणयुग को पार कर स्वर्णभूषण-युग प्राप्त हुआ। वैभव, अधिकारिता, उच्चपदप्राप्ति बढ़े। ये सब ब्रिटिश शासन की ओर से धार्मिक जैनों को ठोस उपलब्धियाँ प्राप्त हुयीं। विश्वविद्यालयों के पठन-पाठन में जैनग्रन्थ नियुक्त हुये। वहाँ जैन पीठ बनीं, जैन अजैन छात्र अध्ययन'अध्यापन करने लगे । 1 हाथरस के मेले में एक उपसर्ग की घटना स्मरणीय है। जन्मकल्याणक के अवसर पर हाथी बिगड़ गया, मदोन्मत्त हो गया। लाल-लाल आँखें हो गईं, महावत को सूंड में उठाकर फेंक दिया। बन्ध तोड़ दिये, संपूर्ण मेला में हाहाकार मच गया। मेला पर अन्य हथिनियाँ तो थीं, किन्तु भगवान् की सवारी हाथी पर ही होती है, हथिनी पर नहीं । सहारनपुरवाले लाला उग्रसेन जी रईस अपने डेरे में केवल कुर्ता पहने नंगे सिर खाट पर बैठे थे, किसी जैन ने जाकर खबर की कि लाला जी जन्मकल्याण के जुलूस का प्रकरण है। लाखों दर्शक उत्सुक खड़े हुये हैं, हाथी बिगड़ गया है, महावत के वश में नहीं है लाला जी ने आव देखा न ताव, भक्तिवश प्राणों की परवाह न करके हाथी की ओर लपके ओर णमोकार मंत्र पढ़कर भावपूर्ण भाषा में बोले "हे गजराज, आज तुम्हारा जन्म सफल होगा। तुम धन्य हो जो भगवान् जिनेन्द्रदेव का आरोहण तुम्हारे मस्तक पर किया जायेगा। तुम भगवान् को लेकर सुदर्शन मेरु पर जाओगे, तुम निकट Jain Education International भव्य हो, तुम शान्त हो जाओ, अपने को कृत-कृत्य समझो, तुम्हारा संसारभ्रमण अत्यल्प रह गया है।" इन शब्दों को सुनकर हाथी एक दम शान्त, निष्क्रिय खड़ा हो गया और लाला उग्रसेन जी की ओर अपनी सूँड बढ़ा दी लाला उग्रसेन जी हस्तिकला के अभ्यस्त थे। झट सूँड़ पर चढ़कर हाथी के माथे पर बैठ गये और कहा कि भगवान् को लाओ। लाखों बन्धु जय जयकार करने लगे, धन्य धन्य कहने लगे। सब हर्षित हुए और जन्मकल्याणक का जुलूस सानन्द सम्पन्न हुआ । दूसरी उपलब्धि चारित्र चक्रवर्ती का उदय : > साठ वर्ष पूर्व श्री १०८ शान्तिसागर जी आचार्य दक्षिण प्रान्त से उत्तर की ओर पधारे सौभाग्यवश उन्होंने बम्बई प्रान्त, राजस्थान, मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश में विहार किया। लाखों जैनबन्धुओं ने धर्मश्रवण, आहारदान, शुद्ध भोजन बनाना आदि सदाचारों को अपनाया तथा अनेक भव्यों ने उनसे मुनिदीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया, हजारों श्रावक श्राविकाओं ने व्रत धारण किये। उनके उपदेश से अनेक पाठशालायें, स्वाध्यायशालायें प्रचलित हुई। अनेक बैर-विरोध मिटे, अनेक अजैनों में जैनधर्म की प्रभावना फैल गयी। मुनिमार्ग, आहारदान प्रणाली, मुनिभक्ति, चालू हो गये, चतुर्थ काल का दृश्य दृष्टिगोचर हुआ । देहली, पंजाब, राजपूताना, गुजरात, मध्यप्रदेश में हजारों जैन बन्धु मुनिभक्त बन गये और उनके विहार, धर्मोपदेश, तीर्थयात्रा आदि में सम्मिलित होकर अपने को धन्य मानने लगे। उनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा आज तक चालू है। आज भी पचास-साठ दिगम्बर मुद्राधारी नग्न मूर्तियाँ विद्यमान हैं। ये साधु अनेक श्रावकों को कल्याणपथप्रदर्शन कर रहे हैं और स्वयं अट्ठाईस मूल गुणों को पाल रहे हैं। पुलाक जाति में मुनियों का आचरण करते हैं यद्यपि कतिपय मुनियों में कुछ शिथिलाचार आ गया । है ज्ञानी श्रावक और विद्वानों का कर्तव्य है कि उन्हें आगम दिखाकर वात्सल्य उपगूहन अंग पालते हुय समझा देवें, वे नि:स्पृह साधु आगम की बातों को श्रद्धा सहित ग्रहणकर लेंगे, फिर भी कदाग्रह वश यदि कोई स्वीकार न करे तो सुत्तादो तं सम्मं यर सिज्जत्तं जदा ण सदहति । सो चेव हवई मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥ पूर्व युगों में भी द्रव्यलिंगी मुनि होते थे। बन्धुवर, श्रावक-श्राविकाओं में अनेक त्रुटियाँ प्रविष्ट हो रही हैं। For Private & Personal Use Only अप्रैल 2009 जिनभाषित 13 www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy