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________________ बीसवीं सदी में जैनों की उपलब्धियाँ स्व० पं० माणिकचन्द जी कौन्देय पाचासी वर्ष के वयोवृद्ध (अब स्वर्गीय) कौन्देय जी अपनी जीवनयात्रा का सिंहावलोकन करते हुए उस सदी में जैनियों द्वारा प्राप्त जैन इतिहास की कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों की चर्चा करते हैं। कुछ ऐसी गिनी-चुनी घटनाएँ हैं, जिन्होंने जैन इतिहास की दो शताब्दियों को प्रभावित किया है। इस लेख की विशेषता यह है कि पक्षपातरहित होकर पण्डित जी ने घटनाओं का चयन किया है। संयम-साधना के उन्नायक परपूज्य आचार्य शान्तिसागर जी (दक्षिण) जिस गरिमा के साथ इस लेख में अवतरित हुए हैं, जैन विद्याओं के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी तथा गुरुवर पं० गोपालदासजी बरैया को भी उसी गरिमा के साथ स्मरण किया गया है। स्वयं पण्डितजी ने अपने जीवन के पन्द्रह-बीस सर्वश्रेष्ठ वर्ष लगाकर जिस महाग्रन्थ 'श्लोकवार्त्तिकालंकार' के महाभाष्य की रचना की थी, और जो बीसवीं सदी की उत्कृष्ट उपलब्धि के रूप में गिना जाना चाहिये था, उसे पण्डित जी ने जैसी नम्रता के साथ, अल्प शब्दों में उल्लिखित किया है, वह उनकी निरभिमानता और आत्मानुशासन का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। मैं आगरा जिला-अन्तर्गत चावली गाँव का रहने | अलीगढ़, मथुरा के सेठों से परामर्श किया गया। सब वाला हूँ। उम्र पचासी वर्ष है। अपनी आँखों से देखी की स्वीकृति से कलेक्टर साहब को अर्जी दी गई कि हुयी घटनाओं को कह रहा हूँ। गाँवों में उन दिनों जमीदारों | हम लोग मेला कराना चाहते हैं। उधर अजैनों ने मेला व ठाकुरों की चलती थी। जैन लोग दबकर, हारकर | निषेध का प्रयत्न किया। कलेक्टर ने झगड़ा हो जाने रहते थे। मन्दिरों में घण्टा नहीं बजा सकते थे, मेला, | की आशंकावश मेला की स्वीकृति नहीं दी। जैनों ने रथयात्रा आदि उत्सव नहीं मना सकते थे, सोने-चाँदी | यू.पी. के गवर्नर से मिलकर मेला की स्वीकृति प्राप्त के गहने पहनना तो असम्भव था। स्त्रियों का हाथ-पावों कर ली। लाखों जैनों में हर्ष की लहर दौड़ गयी। उधर में काँसे की छड़ें पहन लेना भी ठाकुरों की आँखों में अजैन जनता भी कलकत्ता जाकर वाइसराय से मिली खटकता था। जैनों की स्त्रियाँ मन्दिर जाते समय सफेद | और झगड़े का भय बतलाकर मेला निषेध का आर्डर कपड़े भी नहीं पहन सकती थी। ठाकुर लोग बनियों | प्राप्त कर लिया। पुनः दुःखित जैनों ने इलाहाबाद जाकर को पनपने नहीं देते थे, बनियों से उधार लेकर भी चुकाते | गवर्नर से प्रार्थना की कि सरकार, आपके शासन में क्या न थे। अनेक यातनायें जैनों को सहनी पड़ती थीं। १८० कोई झगड़ा हो सकता है? आप हमारे संरक्षक हैं। गवर्नर वर्ष पहिले का युग जैनों के लिये भयावह था। अनेक | ने आश्वासन दिया तथा तत्काल कलकत्ता बाइसराय से रियासतों में तो जैन मन्दिर बनवाना, शिखर निर्माण करना | मिलकर कहा कि 'आप मेरे भरोसे पर मेला की आज्ञा असम्भव था, निषिद्ध था। दे दीजिये। मैं प्रबन्ध कर लूँगा। ब्रिटिश गवर्नमेन्ट इतनी न्यायदृष्टि से ब्रिटिश शासन का लक्ष्य इधर गया, | निर्बल नहीं है कि कुछ विरोधी व्यक्तियों का प्रबन्ध ब्रिटिश शासन को यह जैन समाज का शोषण, पीड़न- | नहीं कर सके।' वायसराय ने अपनी निषेध आज्ञा को ताड़न सहन नहीं हुआ। अंग्रेजों के गढ़ शिमला शैल | वापस ले लिया और हाथरस में मेला कराने की आज्ञा जी, धर्मशालायें बनायी गयीं। भारी | दे दी। अब तो जैन बन्धु बड़े उत्साह से जुट गये और प्रतिष्ठाविधान हआ, सदा न्यायनीति से चलनेवाले जैनों | गवर्नर ने भी भारी उत्साह से मेले का प्रबन्ध किया। में वैभववृद्धि हुई। मेले के अवसर पर हजारों पलिस और सैनिक पहली उपलब्धि : हाथरस का पंचकल्याणक मेला प्रबन्ध कर रहे थे। शहर में सैकड़ों लालफीतावाले सिपाही ६५ वर्ष पूर्व हाथरस नगर में सेठ सुन्दरलालजी | और टोपवाले सैनिक दिखायी दे रहे थे। मेला मार्ग पर ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराने का विचार किया। खर्जा, I मकानों पर चार-चार सिपाही खडे कर दिये गये और 12 अप्रैल 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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