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________________ 'सुहृद्-हितैषी धर्म एव तस्मादन्यत् न'= धर्म के अलावा । रखा है। ऐसे व्यक्ति को पकड़ा, जिन्होंने निष्क्रिय द्रव्य अन्य कोई भी हितैषी नहीं है, यह निश्चय कर लीजिए। | को प्रभावक घोषित कर दिया। उनके मुख से यह कारिका साधन हो गया अर्थात् अपादान विभक्ति हो गई। | हमने कई बार सुनी है। कब से सुनी है? जब आचार्य 'धर्मस्य मूलं दया-धर्मस्य मूलं दया, कालो न- ज्ञानसागर जी महाराज थे, तब से यह कारिका बराबर धर्म का मूल दया है, काल नहीं, क्या कहा- 'धर्मस्य | सुनते आ रहे हैं। यह कारिका उन्हें बहुत पसंद है। मूलं दया' धर्म का मूल दया है। कई व्यक्ति हमसे कहते समन्तभद्र स्वामी को रखने के लिए इस कारिका का हैं कि महाराज! आपके प्रवचनों में दया के अलावा | उल्लेख वे अवश्य करते हैं, लेकिन काल को महाप्रभावक कुछ बात आती नहीं। बात तो बिल्कल ठीक है. हम | के रूप में अवश्य रखते हैं। यह तो बहुत गड़बड़झाला स्वीकार करते हैं, किंतु यह दयारूप धर्म कौन सी आत्मा | हो गया। यह नहीं होना चाहिए, बिल्कुल कमजोर व्यक्ति में रहता है। हमको बता दो, छह द्रव्यों में 'धर्मः | को आप भरजोर कर रहे हो। इससे अधिक और क्या सर्वसखाकरो' आदि इन विशेषणों के माध्यम से उनके | हो सकता है! अनुग्रह का कथन किया है। समन्तभद्र महाराज, पूज्यपाद | यहीं बुद्धि की बलिहारी हो जाती है। बुद्धि की महाराज, कुन्दकुन्द महाराज ये सारे-के-सारे तत्त्व को ओर नहीं देखेंगे, तब तो हमारा काम होगा ही नहीं। समझते हैं। बुद्धि जब भ्रमित हो गई, तो हो गया काम। आगे कुछ ____ 'धर्मस्य मूलं दया' उस दया रूप धर्म के द्वारा भी पुरुषार्थ करो, कुछ होगा ही नहीं, पुरुषार्थ के लिए शिवसुख की प्राप्ति होनेवाली है। दया को पकड़ो, मूल | कितना भी उत्साहित करो, लेकिन वह आ गया काल। को पकडो, चूल तो अपने आप मिल जायेगा। लटक | उसके न सींग हैं, न पँछ है। रहे हैं, उसको पकड़ करके और नीचे जड़ की, मूल छह कारकों में काल नहीं आया। सात कारकों की ओर दृष्टिपात नहीं करते हैं। में भी नहीं आया। बहुत सूक्ष्म तत्त्व का विवेचन करते दया धर्म से यह युग खिसकता चला जा रहा | समय सम्बोधन नहीं रखा जाता। 'बालबोधाय कथ्यते' है। महाराज! आप कृपा करो, महाराज कृपा करो। युग सम्बोधन बालकों को समझाने के लिए रखा जाता है। बिगड़ता चला जा रहा है। 'कोऽयं कालः अस्माकं अध्यात्म का युग है, ऐसे रहस्य उद्घाटित होते जा रहे सम्मुखे' हमे लोगों के सामने यह कौनसा काल आ गया | हैं। उनको पूछा जाय कि ग्रन्थों में कितने कारक रखे है? 'दयाया अभावात् अयमागतः' दया के अभाव के | हैं, बताओ? ध्यान रखो, वहाँ पर सम्बन्ध को छुड़ाने कारण यह आ गया है। 'धर्मस्य मूलं दया।' के लिए कथन किया है, तो वहाँ सम्बन्ध के बारे में 'धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं।''शिविरार्थ?' शिविर | कथन ही नहीं है। जब तक है तब तक के लिए चित्त में धर्म को धारण छठा जो कारक है वह कारक है ही नहीं। करूँ? नहीं, 'धर्मेऽहं चित्तं दधे' मैं चित्त में धर्म को सम्बन्धकारक 'बन्धस्तु द्वयोरस्ति'= सम्बन्ध का जो धारण करता हूँ। एक कारक और रह गया। अस्तित्व आता है वह दो के बीच में आता है। एकस्य 'हे धर्म! मां पालय' हे धर्म! मेरी रक्षा करो। बन्धो नास्ति'= एक का बंध नहीं होता है। दो मिलने हे महाराज! हमारा कल्याण कर दो। यह संबोधन कारक | के उपरांत बंध हो जाता है, तो 'मुक्तिः नास्ति'= मुक्ति है। वस्तुतः षट् कारक होते हैं। आप सुन रहे हैं? चूँकि | नहीं होती है। जब तक एकत्व का अनुभव नहीं होगा, विशेष द्रव्यों के लिए सुनाया नहीं जाता, संयोजक महोदय | तब तक मुक्ति नहीं हो सकेगी। के माध्यम से भूमिका बनी है। अच्छे व्यक्ति को आपने | 'श्रुताराधना' (पृष्ठ २-१०) से साभार क्रमशः ...... अपने नफे के वास्ते मत और का नुकसान कर। तेरा भी नुकसाँ होयगा इस बात ऊपर ध्यान कर॥ 'शेर-ओ-शायरी' (गोयलीय) से साभार - अप्रैल 2009 जिनभाषित ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524338
Book TitleJinabhashita 2009 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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