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________________ दिया जावे। हमारी बात सुनकर सब पञ्चों ने अपना | रुपये की सहायता अवश्य कर देवेंगे, अतः इन्हें सिंघई विरोध वापिस ले लिया और उक्त शर्त पर सिंघई पद देने के लिये राजी हो गये, परन्तु हलकूलाल सहमत नहीं हुए। उनका कहना था कि हम पाँच हजार रुपये नहीं दे सकते। मैंने लोकमन दाऊ से कान में धीरे से कहा कि 'देखो ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, अतः आप इसे समझा देवें ।' अन्त में दाऊ उन्हें एकान्त में ले गये, उन्होंने जिस किसी तरह तीन हजार रुपये तक देना स्वीकार किया। मैंने उपस्थित जनता से अपील की कि आप लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि परवार सभा में पाँच हजार रुपया देने पर सिंघई पदवी का प्रस्ताव पास किया है। उन्होंने बारह हजार रुपया तो प्रतिष्ठा में व्यय किया है और तीन हजार रुपया विद्यादान में दे रहे हैं, तथा इनके तीन हजार रुपया देने से ग्रामवाले भी दो हजार पद से भूषित किया जावे। विवेक से काम लेना चाहिये । इतने बड़े ग्राम में पाठशाला न होना लज्जा की बात है। बहुत वाद-विवाद हुआ। प्राचीन पद्धतिवालों ने बहुत विरोध किया। पर अन्त में दो घंटे बाद प्रस्ताव पास हो गया। उसी समय हलकूलालजी को पञ्चों ने सिंघई पद की पगड़ी बाँधी । इस प्रकार श्री लोकमन दाऊ की चतुराई से शाहपुर में एक विद्यालय की स्थापना हो गयी । पञ्चकल्याणक का उत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, पर अकस्मात् माहुट का पानी बरस जाने से जनता को कष्ट सहना पड़ा। सागर विद्यालय का भी वार्षिक अधिवेशन हुआ था । वहाँ से सागर आ गये और यथावत् धर्मसाधना करने लगे। 'मेरी जीवन गाथा' ( भाग १ ) से साभार आपके पत्र 'जिनभाषित' का अंक (जून + जुलाई 08) प्राप्त हुआ। आप इस पत्रिका को जिस ऊँचाई पर ले गये हैं, वह विज्ञों द्वारा सराहनीय और आदरणीय है । आपका श्रम और ज्ञान हर पृष्ठ पर दर्शन देता है । आचार्य विद्यासागर जी का प्रवचन 'उन्नति की खुराक' अत्यंत प्रेरक है। उनके तीन लम्बे प्रवचनों का सन् 1984 में, मुझे भी सम्पादन करने का सुयोग मिला था, वे भी अत्यंत चर्चित और प्रभावनाशील सिद्ध हुए थे । अरे जिया! जग धोखे की टाटी ॥ टेक ॥ झूठा उद्यम लोक करत है जिसमें निशदिन घाटी । जानबूझकर अन्ध बने हैं आँखन बाँधी पाटी ॥ निकल जायँगे प्राण छिनक में पड़ी रहेगी माटी । 'दौलतराम' समझ मन अपने दिल की खोल कपाटी ॥ मुनि क्षमासागर जी एवं मुनि योग सागर जी की कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। इसी क्रम में आचार्य विद्यासागर जी की कविता 'सिंह और श्वान' एक अति विशिष्ट रचना है, जो, समाधान चाह रहे विद्वानों के लिए स्वर्णाक्षरी - उत्तर है । लेखों के क्रम में प्रो० रतनचंद्र जी जैन, पं० मिलापचंद जी कटारिया और पं० रतनलाल बैनाड़ा का 'जिज्ञासा समाधान' वह प्रसाद वितरित कर रहे हैं, जो बड़े-बड़े साधु-संत करते हैं । अन्य सभी लेखादि भी बार-बार प्रसंशनीय हैं। 12 अग्रस्त 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only भवदीय सुरेश जैन 'सरल' 405, गढ़ाफाटक, जबलपुर (म.प्र.) www.jainelibrary.org
SR No.524330
Book TitleJinabhashita 2008 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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