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________________ जैनसमाज का महनीय गौरव-ग्रन्थ कातन्त्र-व्याकरण प्रो. डॉ. राजाराम जैन जैनाचार्यों ने कठोर तपस्या एवं अखण्ड दीर्घ- | किया है। बौद्धों ने न केवल उसका अध्ययन किया, साधना के बल पर आत्मगुणों का चरम विकास तो | बल्कि उस पर दर्जनों टीकायें एवं व्याख्यायें भी लिखीं, किया ही, परहित में भी वे पीछे नहीं रहे। परहित से | वैदिक विद्वानों ने उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर उस पर यहाँ तात्पर्य है, लोकोपकारी अमृतवाणी की वर्षा, अथवा | दर्जनों ग्रन्थ लिखे। सामान्य जनता को जिसने भाषा विचार प्रौढ़-लेखनी के माध्यम से ऐसे सूत्रों का अंकन, जिनसे | की प्रेरणा दी, छात्रों के बौद्धिक-विकास में जिसने सामाजिक गौरव की अभिवृद्धि, सौहार्द एवं समन्वय तथा चमत्कारी सहायता की और इनसे भी आगे बढ़कर, जिसने राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की भावना बलवती हो। | सामाजिक सौहार्द एवं भारत की राष्ट्रीय एकता तथा निरतिचार अणुव्रत एवं महाव्रत उसकी पृष्ठभूमि रही | अखण्डता का युग-सन्देश दिया। वस्तुतः यह था- जैन है। साधक महापुरुषों के इन्हीं पावन-सन्देशों के संवाहक | आदर्शों, जैन संस्कृतिक-वैभव तथा उसके प्रातिम-विकास कल्याणमुनि, कोटिभट्ट श्रीपाल, भविष्यदत्त एवं जिनेन्द्रदत्त का एक अनुपम आदर्श उदाहरण, जिसका शानदार प्रतीक प्रभृति ने देश-विदेश की सोद्देश्य यात्रायें कर युगों-युगों | बना 'कातन्त्र-व्याकरण'। से वहाँ जैन-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के जैसे सर्वोदयी आचार्य भावसेन 'विद्य' (विद्य अर्थात् आगमविद, सत्कार्य किये, उनका चिन्तन कर हमारा मस्तक गौरवोन्नत | शास्त्रविद् एवं भाषाविद्) ने 'कातन्त्र-व्याकरण' के विषय हो उठता है। इस विषय में डॉ. कामताप्रसाद, डॉ. | में लिखा है कि 'उसका प्रवचन मूलतः आद्य तीर्थंकर कालिदास नाग, मोरिस विंटरनित्स, डॉ. मोतीचन्द्र, डॉ. | ऋषभदेव ने किया था, जिसका संक्षिप्त सार परम्पराबी.एन.पाण्डे आदि प्राच्यविद्याविदों ने काफी प्रकाश डाला | प्राप्त ज्ञान के आधार पर आचार्य शर्ववर्म ने सूत्र-शैली है। कम्बोडिया के उत्खन्न में अभी हाल में एक विशाल में तैयार किया था।' प्राचीन पंचमेरु जैनमंदिर का मिलना उन्हीं उदाहरणों में कातन्त्र-व्याकरणकार शर्ववर्म का जीवनवृत्त अज्ञात से एक है। वहाँ के उत्खन्न में आज विविध जैन | है। रचनाकाल का भी पता नहीं चलता। 'कथासरित्सागर' पुरातात्त्विक सामग्री मिल रही है। डॉ. बी.एन. पाण्डे | के अनुसार वे राजा सातवाहन या शालिवाहन के समकालीन के अनुसार लगभग २००० वर्ष पूर्व इजरायल में ४००० सिद्ध होते हैं। किन्तु व्याकरण-साहित्य के कुछ जैनेतर दिगम्बर जैन साधु प्रतिष्ठित थे। प्राचीन विदेशी यात्रियों | इतिहासकारों ने विविध साक्ष्यों के आधार पर उनके ने भी इसीप्रकार के संकेत दिये है। उत्तरी और दक्षिणी | | रचनाकाल पर बहुआयामी गम्भीर विचार किया है। पं. अमेरिका, मैक्सिको, यूनान, जर्मनी, कम्बोडिया, जापान भगवद्दत्त वेदालंकार ने शर्ववर्म का रचनाकाल विक्रमएवं चीन आदि में उपलब्ध हमारी सांस्कृतिक विरासत पूर्व ५०० वर्ष स्वीकार किया है, जबकि पं. युधिष्ठिर हमारे विश्वव्यापी अतीतकालीन स्वर्णिम-वैभव की मिमांसक ने महर्षी पतंजलि से लगभग १५०० वर्ष पूर्व गौरवगाथा गाती प्रतीत हो रही है। का माना है और उसके प्रमाण में उन्होंने अपने महाभाष्य यहाँ मैं कुछेक ग्रन्थों में से एक ऐसे गौरव-ग्रन्थ | में उल्लिखित 'कालापाक' (अर्थात् कातन्त्र-व्याकरण) की चर्चा करना चाहता हूँ, जो कहने के लिये तो व्याकरण | की चर्चा की है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि शववर्म जैसे नीरस विषय से सम्बन्ध रखता है, किन्तु उसकी | महर्षि पतंजलि के भी पूर्ववर्ती थे। पतंजलि का समय प्रभावक गुणगरिमा, सरलता, सर्वगम्यता, लोकप्रचलित | ई.पू. लगभग चतुर्थ सदी माना गया है। समकालीन शब्द-संस्कृति का अन्तर्लीनीकरण तथा उन्होंने (पतंजलि ने) अपने समय में 'कालापाक' ज्ञानसंवर्धक प्रेरक शक्ति जैसी विशेषताओं के कारण वह | अर्थात् 'कातन्त्र-व्याकरण' का प्रभाव साक्षात् देखा था सभी धर्मों, सम्प्रदयों, जातियों या अन्य विविध संकीर्णताओं | और प्रभावित होकर अपने 'महाभाष्य' (सूत्र १६७१) से ऊपर है। तथा जिसने देश-विदेश के बुद्धिजीवियों | में स्पष्ट लिखा है कि 'ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, में सभी एवं चिन्तकों की विचार-श्रृंखला को युगों-युगों से उबुद्धः। सम्प्रदायों में उसका अध्ययन कराया जाता है' - अगस्त 2008 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524330
Book TitleJinabhashita 2008 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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