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________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ लोग हँसते हैं मैंने सूरज को बुलाया है वृक्ष भी आएँगे चिड़िया भी आएगी, नदी और सागर दोनों ने आने को कहा है, धरती और आकाश दोनों के नाम मैंने चिट्ठी लिख दी है, कि हमारी माटी की गुड़िया के ब्याह में सभी को आना है। लोग हँसते हैं, कहते हैं यह मेरा बचपना है। सचमुच, प्रकृतिस्थ होना बचपन में लौटना है। स्वयं अकेला उसने चाहा कि उसके सब ओर सागर हो और अब जब उसके सब ओर सागर फैला है, वह स्वयं एक द्वीप की तरह निर्जन और अकेला है। कहनी-अनकहनी कुछ कहने से पहले हम कितना सोचते हैं कि इस बार सब कह देंगे। पर कहने के बाद मालूम पड़ता है कि कहा कम और अनकहा ज्यादा रह गया है। असल में, भावों के प्रवाह में शब्दों का सेतु या तो बन ही नहीं पाता या टूट जाता है। साधना अभी मुझे और धीमे कदम रखना है, अभी तो चलने की आवाज आती है। 'अपना घर' से साभार स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524324
Book TitleJinabhashita 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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