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33 सागर काल में नियम से मनुष्यगति प्राप्तकर मोक्ष पधारेंगे।
इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाले देव और नारकी, साधिक 33 सागर काल में कई असंख्यात हो जाते हैं। इसके अलावा वे तीर्थंकर और भी हैं जो विदेहक्षेत्र में मनुष्यगति प्राप्त कर, उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर, तीर्थंकर बनकर मोक्ष पधारते हैं ।
इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि जितने एक कल्पकाल में भरत - ऐरावत के 10 क्षेत्रों में से 480 तीर्थंकर होते हैं, उतने ही काल में विदेह क्षेत्र से संख्यात असंख्यात तीर्थंकर हो जाते हैं।
प्रश्नकर्त्ता- डॉ० नवीन कुमार जबलपुर । प्रश्न- क्या परमाणु के भी भेद होते हैं ? समाधान- श्री नियमसार गाथा- 25 की टीका में एवं पंचास्तिकाय गाथा - 80 की टीका में परमाणु के चार भेद इस प्रकार कहे गये हैं
1. कारण परमाणु- जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार धातुओं का कारण है उसे कारण परमाणु कहते हैं अथवा स्कंधों का निर्माण करने अर्थात् जिन परमाणुओं के मिलने से कोई स्कंध बने उसे कारण परमाणु कहते हैं।
2. कार्य परमाणु- स्कन्धों के भेद होते-होते जो अंतिम अंश रहता है उसे कार्य परमाणु कहते हैं अर्थात् स्कंध के विघटन से उत्पन्न होने वाला कार्य परमाणु है ।
3. जघन्य परमाणु- जो परमाणु एक गुण स्निग्ध या एक गुण रूक्षवाला होने से बंध के अयोग्य है उसे जघन्य परमाणु कहते हैं ।
4. उत्कृष्ट परमाणु- एक गुण स्निग्ध और रूक्षता के ऊपर दो गुण वाले और चार गुण वाले का सम संबंध होता है तथा तीन गुण वाले का और पाँच गुण वाले का विषम बंध होता है वह उत्कृष्ट परमाणु है ।
प्रश्नकर्त्ता - सौ० सुमन पत्रावली, बेलगाँव । प्रश्न- क्या गृहस्थों के आत्मा का ध्यान नहीं
होता ?
समाधान - 1. उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित मोक्षपाहुड़ की गाथा नं. 2 अत्यंत उपयोगी एवं विचारणीय है जो इस प्रकार है
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मिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥ 2 ॥
अर्थ- अनंत उत्कृष्ट ज्ञान तथा अनंत उत्कृष्ट दर्शन से युक्त, निर्मल स्वरूप उन सर्वज्ञ वीतराग देव को नमस्कार कर मैं परम योगियों के लिए परम पदरूप परमात्मा का कथन करूँगा ।
इस गाथा की टीका में श्री श्रुतसागर जी सूरि ने जो कहा है उसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है- "मैं परम योगियों अर्थात् दिगम्बर गुरुओं के लिए यह कथन करूँगा, इस प्रतिज्ञा वाक्य से यह सूचित होता है कि परमात्मा का ध्यान मुनियों के ही घटित होता है तपे हुए लोहे के गोले के समान गृहस्थों के परमात्मा का ध्यान संगत नहीं होता। उनके लिए तो दान, पूजा, पर्व के दिन उपवास करना, सम्यक्त्व का पालन करना तथा शीलव्रत की रक्षा करना आदि गृहस्थ धर्म का उपदेश ही कार्यकारी होता है। वे आगे लिखते हैं- "ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुव ते जिनधर्म विराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । अत्याचारा गृहस्थधर्मादपि पतिता उभयभ्रष्टा वेदितव्याः ।"
अर्थ- जो गृहस्थ होते हुए भी तथा रंचमात्र आत्मा की भावना को न पाते हुए भी यह कहते हैं कि हम तो आत्मा का ध्यान करते हैं वे जिनधर्म की विराधना करने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। ऐसे जीव मुनियों के आचार से तो रहित हैं ही, गृहस्थ धर्म से भी पतित होकर उभयभ्रष्ट (दोनों से भ्रष्ट) होते हुए पापी हो जाते हैं । 2. आचार्य शुभचंद्र ने भी ज्ञानार्णव में इस प्रकार कहा है
खपुष्पमथवाशृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते ।
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमे ॥ 4-17॥ अर्थ- आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं की प्रतीति हो सकती है, परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की होते हैं । कदाचित् किसी देश व काल में इनके होने सिद्धि होनी तो किसी देश व काल में संभव नहीं है। 3. श्री देवसेनसूरि विरचित भावसंग्रह में इस प्रकार
कहा है
जो अइ को वि एवं अत्थि गिहत्थाणणिच्चलंझाणं । सुद्धं च णिरालंबं ण मुणइ सो आयमो जइणो ॥ 382 ॥ अर्थ- गृहस्थियों के निश्चल, शुद्ध एवं निरालंब धर्मध्यान होता है ऐसा जो कहता है वह आगम को
जनवरी 2008 जिनभाषित 28
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