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________________ नहीं मानता। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि गृहस्थों के आत्मध्यान मानना आगम सम्मत नहीं है। प्रश्न- अष्टप्रवचनमातृका का स्वरूप क्या है? समाधान- भगवती आराधना गाथा-1185 की टीका में इस प्रकार कहा है एवं पञ्चसमितयः तिस्त्रोगुप्तयश्च प्रवचनमातृकाः । अर्थ - तीन गुप्ति और पाँच समितियों को प्रवचनमातृका कहते हैं। श्री मूलाचार गाथा - 297 में इस प्रकार कहा हैपणिधाण जोग जुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । एस चरित्ताचारो अट्ठविहो होइ णायव्वो ॥ 297 ॥ अर्थ- पाँच समिति और तीन गुप्तियों में शुभ मन, वचन, काय की प्रवृत्ति रूप यह चारित्राचार आठ दिगम्बर जैन समाज की एकता के लिये यह परम आवश्यक है कि पूजनपद्धति के सन्दर्भ में जहाँ जो तेरापंथी या बीसपंथी परम्परा चली आ रही है, आगे भी वही चलती रहे, उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं किया जाय। इस बात को समाज के सभी नेतृवर्ग ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है। दिगम्बर जैन महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मलकुमार जी सेठी जब लन्दन में मुझसे मिले तो उनकी जबान पर पहला यही सवाल था कि पूजा पद्धति आदि की जहाँ जो परम्परा चल रही है, वहाँ वही चले, उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन न किया जाय- क्या आप इस बात से सहमत हैं ? जहाँ जो परम्परा चल रही है ...? उनके प्रश्न के उत्तर में जब मैंने उनसे कहा कि हम इस बात से पूरी तरह सहमत हैं तो वे उछल पड़े और बड़े ही उत्साह से कहने लगे कि अब हमारी और आपकी एकता के मार्ग की आधी बाधायें तो दूर हो ही गई हैं। उक्त सन्दर्भ में समाज के जिन-जिन कर्णधारों से बात हुई, सभी ने यही मत व्यक्त किया। ऐसी वैचारिक पृष्ठभूमि में यदि बावनगजा (बड़वानी ) में होने वाले महामस्तकाभिषेक के सन्दर्भ में विचार करें तो कोई कारण नहीं है, कि हम वहाँ चली आ रही परम्परा में किसी प्रकार का बदलाव करें। पत्रों में प्रकाशित समाचारों से जब समाज को यह पता चला कि वहाँ पंचामृत अभिषेक होगा, तो समाज में खलबली मच गई, क्योंकि अब तक वहाँ की परम्परा Jain Education International प्रकार का अष्टप्रवचनमातृका है, ऐसा जानना चाहिए। इनको मातृका क्यों कहा है इसके बारे में भगवती आराधना गाथा 1205 में इस प्रकार कहा है एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं । रक्खति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ ॥ 1205 ॥ अर्थ- ये अष्टप्रवचन माता मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सदा ऐसे रक्षा करती हैं जैसे कि पुत्र का हित करने में सावधान माता दुःखों से उसको बचाती है । (ठीक ऐसा ही वर्णन मूलाचार गाथा 336 में भी पाया जाता है) इसी कारण इनको मातृका कहा गया है। 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा - 282002 ( उ.प्र. ) तेरापंथानुसार जलाभिषेक करने की ही रही है। इन्दौर या उसके आस-पास की समाज में यह बात बहुत जोरों से फैल रही है कि यदि सर सेठ हुकमचन्द जी साहब होते, तो यह किसी भी रूप में संभव नहीं था । हमारे पास अनेक लोगों के पत्र आ रहे हैं, जिनमें उक्त सन्दर्भ में हमारे विचार जानने का प्रयत्न किया गया है और इस दिशा में कुछ करने का आग्रह भी किया गया है । यद्यपि हमारी नीति तो यह है कि हम समाज के या तीर्थों के मामलों में अनावश्यक रूप से कहीं न उलझें, तथापि उक्त संदर्भ में समाज के सभी कर्णधारों से विनम्र अनुरोध करना चाहते हैं कि समय रहते ऐसा कुछ करें कि हमारा यह तीर्थराज और उसके महामस्तकाभिषेक का यह मंगल अवसर दिगम्बर समाज में बिखराव लाने का हेतु न बने, कटुता उत्पन्न करने का प्रसंग न बने । जल से अभिषेक करने में तो किसी को कोई परहेज होता ही नहीं है, अतः सभी समाज भगवान् का जलाभिषेक कर अपने जीवन को सफल व सार्थक करें, तो वातावरण में जो पवित्रता रहेगी, वह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । हमें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि समय रहते हम सब किसी न किसी ऐसे सर्वसम्मत निर्णय पर अवश्य पहुँच जायेंगे कि जिसमें किसी एक भी व्यक्ति को मानसिक आघात न पहुँचे और यह काम पूरी सफलता के साथ निर्विघ्न सम्पन्न हो जावे, इस पवित्र भावना से विराम लेता हूँ । डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, राष्ट्रीय अध्यक्ष अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् जनवरी 2008 जिनभाषित 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524324
Book TitleJinabhashita 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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