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महान, जिसकी जितनी संपत्ति वह उतना ही सफल, । इसके अतिरिक्त सुंदर बनने की ख्वाहिश और जिसका जितना बाहुबल वह उतना ही बलवान । इन आदर्शों | जवां दिखने की हसरत भी हद से ज्यादा बढ़ती जा की पूर्ति के लिए युवा पीढ़ी कुछ भी करने के लिए | रही है और उसके लिए भी युवा पीढ़ी क्या-क्या नहीं तैयार है। एक और भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है जिसे हम कर रही है। प्रतियोगिता, आगे निकलने की चाहत, रातों वीपेन इफेक्ट कहते हैं। हथियारों के बीच पलने वाले | रात अमीर बन जाने की तमन्ना। ऐसे में कैसे होगा स्वस्थ बच्चे का व्यक्तित्व विध्वंसकारी होता है। उसे कभी- | व्यक्तित्व का विकास? इसके निराकरण का कोई सरल कभी विध्वंस और मारकाट में अत्यधिक आनंद आता | रास्ता नहीं है। बस एक ही बात समझ में आती है
| कि बहुत सारी अवांछनीय आदतों तथा कुंठित एवं देखनेवाली बात है कि भारतीय जीवनशैली पर | अपरिपक्व व्यक्तित्व का विकास नासमझी और अनजाने पाश्चात्य जीवनशैली हावी होती जा रही है। भारतीय | में ही हो रहा है। जो कुछ हो रहा है उसका परिणाम आदर्श और मूल्य मरते जा रहे हैं। दूरसंचार और सूचना | क्या होगा? जिसे माँ-बाप अपनी सामाजिक श्रेष्ठता और प्रोद्यौगिकी हमारे जीवन पर पूरी तरह हावी हो चुके हैं। आन-बान-शान का प्रतीक समझते हैं वह उनके बच्चे दूरदर्शन, कम्प्यूटर, मोबाइल ने लोगों को समाज से अलग- | में किस तरह का व्यक्ति विकसित करेगा। यह वे नहीं थलग कर दिया है। टीवी पर क्राइम के ही सीरियल | जानते या नहीं समझते। यदि हम मीडिया के उपयोग दिखाए जाते हैं। कम्प्यूटर पर तो ना जाने क्या-क्या उपलब्ध | से माँ-बाप को इसके परिणामों का भी प्रशिक्षण दे सकें है। कभी गौर कीजिए कि बच्चे कितने चाव से उन्हें | तो पूरा विश्वास है कि कोई भी माँ-बाप जानबूझकर देखते हैं और उनमें दिखाए पात्रों से पूर्ण रूप से सहमति | ऐसा नहीं करेंगे। इसके बाद ही वर्तमान स्थिति में परिवर्तन जताते हैं। यही नहीं वे उसे अपनी वास्तविक जिंदगी | संभव है। में उतारने के लिए भी उतावले रहते हैं। बहादुर बनने
'दैनिक भास्कर', भोपाल और आधिपत्य स्थापित करने की प्रवृत्ति उनके व्यक्तित्व
4 जनवरी 2008 से साभार का एक भाग बन जाती है।
प्रथम-दर्शन तब उन्हें पहली बार देखा था। छोटे से कमरे में वे बैठे थे। इतना बड़ा व्यक्तित्व इतने छोटे से स्थान में समा गया, इस बात ने मुझे चकित ही किया। उनके ठीक पीछे खुली हुई एक बड़ी खिड़की
और उससे झाँकता आकाश उस दिन पहली बार बहुत अच्छा लगा। खिड़की से आती रोशनी और उनकी निरावरित देह से निरन्तर झरती प्रभा ने अनायास एक ऐसा आभा-मण्डल वहाँ बना दिया था जो उनके मुख पर बिखरी मुस्कान की तरह सहज प्रभावक था।
क्षण भर के लिए मैं उस वीतराग देह के आकर्षण में खो गया और बाहर ही ठिठका रह गया। थोड़ी देर बाद लगा कि भीतर जाना चाहिए। देखना तो भीतर से ही संभव है। बाहर से पूरा देखना नहीं हो पाता, पर भीत
भीतर पहुँचना आसान नहीं था। दरवाजे पर भीड़ बहुत थी और मैं अभी भीड़ से घिरा था। यह सोचकर कि कभी संभव हुआ तो एकाकी होकर आऊँगा, मैं वापिस लौट आया। कह तो यही रहा हैं कि उस दिन वापिस लौट आया. लेकिन आज तक लौट नहीं पाया। अब ते कि जीवन भर उन श्री-चरणों में बना रहँ. वहाँ से कभी अलग न होऊँ। मझे पह करके वीतरागता के जीवन्त-सौंदर्य का अहसास हुआ। फिर तो मंदिर में विराजे श्री भगवान् भी जीवित लगने लगे। यही मेरे प्रथम दर्शन की उपलब्धि है।
(कुण्डलपुर 1976) मुनि श्री क्षमासागरकृत 'आत्मान्वेषी' से साभार
-जनवरी 2008 जिनभाषित 21
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