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उन दिगम्बरजैन श्रमणों को 'संयमप्रतिपन्न' अर्थात् संयमी कहा है, जो आचार्य वसन्तकीर्ति के उपदेश से म्लेच्छों के उपसर्ग से बचने के लिए अथवा राजादिवर्ग में उत्पन्न होने के कारण परीषहों एवं लज्जा से बचने के लिए नग्नता को छिपाने हेतु चटाई, टाट, वस्त्र आदि अपवादवेष धारण करने लगे थे।
श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में परीषहजय एवं लज्जाविजय में असमर्थ साधुओं के लिए 'स्थविरकल्प' नाम से वस्त्रपात्रादिग्रहणरूप अपवादवेश की अनुमति दी गई है। इसी का अनुकरण कर भट्टारक श्रुतसागरसूरि ने आचार्य वसन्तकीर्ति द्वारा दिगम्बरजैन श्रमणों के लिए उपदिष्ट उपर्युक्त वेश को अपवादवेष या अपवादलिङ्ग की संज्ञा दी है। किन्तु किसी भी दिगम्बरजैन-आगम में किसी भी परिस्थति में साधुओं के लिए, शरीराच्छादक अपवादवेष की अनुमति नहीं दी गयी है। और जिन कुन्दकुन्द ने वस्त्रधारी को तथा वस्त्रविहीन असंयमी को असंयमी कहा है तथा जो 'सुत्तपाहुड' में कहते हैं कि तिलतुषमात्र भी परिग्रह रखनेवाला साधु निगोद में जाता
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं॥18॥ ___ऐसे कुन्दकुन्द इन तथाकथित अपवादवेषधारियों को 'संयमप्रतिपन्न' (संयमी) कह ही नहीं सकते, उनके वेष को 'अपवादवेष' नाम देने की तो बात ही दूर। और लाख बात की बात यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्व ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक था, जब कि उक्त अपवादवेश के उपदेशक आचार्य वसन्तकीर्ति ईसा की 13वीं शताब्दी में हुए थे। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा वसन्तकीर्ति-उपदिष्ट चटाई-टाट-वस्त्रादिरूप, दिगम्बरत्व-विरोधी, परिग्रहमय, अपवादवेष धारण करनेवाले साधुओं को संयमप्रतिपन्न (संयमी) कहा जाना संभव ही नहीं है। अत: सिद्ध है कि दसणपाहुड की 24वीं गाथा में 'सोऽसंजमपडिवण्णो' पाठ ही है। इस पाठ से ही गाथा का अर्थ आचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्राय के अनुरूप प्रतिपादित होता है।
श्रुतसागरसूरि द्वारा उक्त जिनागम-विरुद्ध व्याख्या किये जाने का एकमात्र कारण है लिपिकार द्वारा 'संजम शब्द के पूर्व अवग्रहचिह्न का प्रयोग न किया जाना, जिससे 'असंयम-प्रतिपन्न' की जगह 'संयमप्रतिपन्न' पाठ हो गया और श्रुतसागरसूरि ने उसकी असंगतता पर विचार न कर उस असंगत पद की ही संगति बैठाने के लिए आगमविरुद्ध व्याख्या कर डाली। यदि वहाँ अवग्रहचिह्न होता तो, वे ऐसी आगमविरुद्ध व्याख्या न करते। अतः दसणपाहुड की 24वीं गाथा में 'सोऽसंजमपडिवण्णो' पाठ किया जाना चाहिए।
रतनचन्द्र जैन
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते, प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते॥
कठोपनिषद् /१/२,२। अनुवाद- 'आत्मसुख (मोक्षसुख) और इन्द्रियसुख दोनों मनुष्य के पास आते हैं। ज्ञानी मनुष्य इन्द्रियसुख की अपेक्षा आत्मसुख का वरण करता है और अज्ञानी आत्मसुख की अपेक्षा इन्द्रियसुख को चुनता है।'
4 सितम्बर 2007 जिनभाषित
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