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________________ कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड में उसी 25वीं गाथा के बाद वस्त्रधारी पुरुष को असंयमी ही कहा है। यथा असंजदं ण वन्दे वच्छविहीणोवि सो ण वंदिज्ज। दुण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥ 26॥ अनुवाद- असंयमी की वन्दना नहीं करनी चाहिए ओर जो वस्त्रविहीन होकर भी असंयमी है, वह भी वन्दना के योग्य नहीं है। वस्त्रधारी और वस्त्रविहीन-असंयमी दोनों समान होते हैं। उनमें से कोई भी संयमी नहीं है। . अपने इस वचन के अनुसार कन्दकन्द दिगम्बरजैन मुनियों के सहजोत्पन्न नग्नरूप का अनादर करनेवाले उपर्युक्त सवस्त्र-मुक्तिवादी साधुओं को संयमप्रतिपन्न अर्थात् संयमी नहीं कह सकते। अतः दंसणपाहुड की पूर्वोक्त 24वीं गाथा में 'सो संजमपडिवण्णो' शब्द कुन्दकुन्द द्वारा प्रयुक्त नहीं हैं। कुन्दकुन्द ने 'सोऽसंजमपडिवण्णो' ऐसा अवग्रहचिह्नयुक्त ही प्रयोग किया है। किन्तु लिपिकार की भूल एवं विद्वानों के अनवधान से आज तक उक्त गाथा में अवग्रहचिह्नरहित 'सो संजमपडिवण्णो' यही प्रयोग चला आ रहा है। यह अयुक्तियुक्त प्रयोग ईसा की 16वीं शती में अष्टपाहुड के टीकाकार भट्टारक श्रुतसागरसूरि को उपलब्ध प्रति में भी था। इसीलिए उन्होंने 'सो संजमपडिवण्णो' इस असंगत प्रयोग की असंगतता पर ध्यान दिये बिना उसकी संगति बैठाने के लिए कुन्दकुन्द के अभिप्राय के सर्वथा विपरीत व्याख्या की है। उन्होंने 'संजमपडिवण्णो' अर्थात् 'संयमप्रतिपन्न' शब्द को उन भ्रष्ट दिगम्बरजैन मुनियों का सूचक मान लिया, जो 13वीं शताब्दी ई० में आचार्य वसन्तकीर्ति के उपदेश से आहारदि के लिए निकलते समय शरीर को चटाई, टाट आदि से ढक लेते थे। देखिए उनके शब्द "सहजोत्पन्नं स्वभावोत्पन्नं रूपं नग्नं रूपं दृष्ट्वा यः पुमान् न मन्यते, नग्नत्वेऽरुचिं करोति, नग्नत्वे किं प्रयोजनं? पशवः किं नग्ना न भवन्तीति व्रते 'मच्छरिओ' परेषां शुभकर्मणि द्वेषी स पुमान् संयम प्रतिपन्नो दीक्षां प्राप्तोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवत्येव। अपवादवेषं धरन्नपि मिथ्यादृष्टिातव्य इत्यर्थः। कोऽपवादवेषः? कलौ किल म्लेचछादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्री वसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसारादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः। तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैरागयवान् लिङ्गशुद्धिरहितः उत्पन्नमेहनपुटदोषः लज्जावान् वा शीताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽप्यपवादलिङ्गः प्रोच्यते। उत्सर्गवेषस्त नग्न एवेति ज्ञातव्यम।" (दंसणपाहड/गा. 24)। अनुवाददिगम्बरजैन मुनि का नग्नरूप स्वाभाविक रूप है। जो पुरुष उसे देखकर उसकी विनय नहीं करता, नग्नत्व को नापसन्द करता है, कहता है कि नग्नत्व में क्या रक्खा है, क्या पशु नग्न नहीं होते? वह पुरुष दूसरे की व्रतरूप शुभक्रिया से द्वेष करता है, वह पुरुष संयम को प्राप्त होते हुए भी, मुनिदीक्षा धारण करते हुए भी मिथ्यादृष्टि ही होता है। अर्थात् अपवादवेषधारी होते हुए भी उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। अपवादवेष किसे कहते हैं? इस कलियुग में म्लेच्छ (भारत पर राज करनेवाले विदेशी आक्रान्ता) आदि जैनमुनियों को नग्न देखकर उनपर उपसर्ग करते हैं। इसलिए मण्डपदुर्ग (मांडू) में श्री वसन्तकीर्ति स्वामी ने मुनियों को यह उपदेश दिया कि वे चर्यादि के समय चटाई, टाट आदि से शरीर ढंककर निकलें और चर्यादि करके उनका त्याग कर दें। यह अपवाद-वेष है। तथा नृपादिवर्ग में उत्पन्न जिन पुरुषों को परम वैराग्य हो गया है, किन्तु लिङ्ग (जननेन्द्रिय) में दोष होने के कारण नग्न होने में लज्जा आती है, अथवा शीतादिपरीषह सहने में - असमर्थ हैं, वे भी (मुनिदीक्षा ग्रहण कर) वस्त्रधारण करते हैं। उनका यह लिङ्ग भी अपवादलिङ्ग कहलाता है। किन्तु उत्सर्गलिङ्ग तो नग्नता ही है, यह याद रखना चाहिए।" इस प्रकार श्रुतसागरसूरि ने यह व्याख्या की है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड की 24वीं गाथा में -सितम्बर 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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