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________________ सम्पादकीय 'सो संजमपडिवण्णो ' (दसणपाहुड/ गा.२४) में 'संजम' के पूर्व अवग्रहचिह्न आवश्यक आचार्य कुन्दकुन्दकृत 'दसणपाहुड' की 24वीं गाथा इस प्रकार मुद्रित है सहजुप्पण्णं रूवं दटुं जो मण्णए ण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो॥ (देखिये, 1: अष्टपाहुड'/अनुवादक : पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य/ प्रकाशक : श्री शान्तिवीर दि. जैन संस्थान, शान्तिवीरनगर, श्री महावीर जी (राज.)/ सन् 1968 ई.12. इसी का दूसरा संस्करण, प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद्/सन् 1995 ई.। 3. षट्प्राभृत'/टीकाकर्ती : आर्यिका श्री सुपार्श्वमतिजी/प्रकाशिका : श्रीमती शान्तिदेवी बड़जात्या, केदार रोड, गौहाटी/ई. सन् 19891) उपर्युक्त गाथा से यह अर्थ प्रतिपादित होता है- “जो संयमप्रतिपन्न (संयमी) मुनि, मुनियों के सहजोत्पन्न रूप अर्थात् यथाजात नग्नरूप को देखकर उसका आदर नहीं करता, बल्कि ईर्ष्या करता है, वह संयमप्रतिपन्न मुनि मिथ्यादृष्टि होता है।" ____यह अर्थ असंगत है। दिगम्बरजैन-मत में सम्यग्दर्शनपूर्वक 28 मूलगुणों के निरतिचार पालक, नग्नवेशधारी मुनि को ही संयमी कहा गया है, अतः जो स्वयं सम्यग्दृष्टि, संयमी, (दिगम्बरमुनि) है, वह अपने ही समान सम्यग्दृष्टि, संयमी (दिगम्बरमुनि) को देखकर उनका अनादर और उनसे ईर्ष्या कैसे कर सकता है? यह तो अपने ही दिगम्बरवेश और संयम का अनादर है। अत: यह अर्थ स्वविरोधी और असम्भव होने के कारण असंगत है। इसके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द ने दसणपाहुड की 31वीं गाथा में 'सम्मत्ताओ चरणं' कहकर सम्यग्दर्शन के सद्भाव में चारित्र अर्थात् संयम की उत्पत्ति बतलायी है। अतः पूर्वोद्धृत गाथा (दंसणपाहुड/24) में संयमी को मिथ्यादृष्टि कहा जाना भी असंगत है। गाथा से इस स्वविरोधी, असंगत अर्थ के प्रतिपादित होने का कारण है मूल प्रति में लिपिकार द्वारा 'सोऽसंजमपडिवण्णो' के स्थान में 'सो संजमपडिवण्णो' ऐसा अवग्रहचिह्नरहित प्रयोग किया जाना और मुनियों तथा विद्वानों का इस पर ध्यान न जाना। आचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्राय के अनुसार 'संजम' शब्द के पूर्व अवग्रहचिह्न (5) आवश्यक है। अवग्रहचिह्न होने पर गाथा इस प्रकार होगी सहजुप्पण्णं रूवं दटुं जो मण्णए ण मच्छरिओ। सोऽसंजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो॥ 24॥ और इससे निम्नलिखित अर्थ प्रतिपादित होगा "जो असंयमी पुरुष दिगम्बर जैनमुनि के नग्नरूप को देखकर उसका आदर नहीं करता, अपितु ईर्ष्या करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।" गाथा का यह अर्थ सुसंगत और कुन्दकुन्द के अभिप्राय के अनुरूप है, अत: गाथा में निर्दिष्ट स्थान पर अवग्रहचिह्न होना अनिवार्य है। दिगम्बरजैन मुनियों के सहजोत्पन्न नग्नरूप का अनादर जैननामधारी सवस्त्रमुक्ति माननेवाले सम्प्रदाय के साधु तथा अन्य सवस्त्र साधु एवं गृहस्थ ही कर सकते हैं, यह स्पष्टीकरण 'दंसणपाहुड' की 'अमराणवंदियाणं रूपं दट्ठण' इस 25वीं गाथा की टीका में श्रुतसागर सूरि ने किया है। यथा- "तीर्थङ्करपरमदेवानां रूपं वेषं दृष्ट्वा--ये पुरुषा जैनाभासास्तथान्ये च गर्वं कुर्वन्ति---(ते) सम्यक्त्वरहिता भवन्ति मिथ्यादृष्टयो भवन्ति।" और आचार्य 2 सितम्बर 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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