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________________ जैन सन्तों का चातुर्मास स्थापना और उद्देश्य मुनि श्री समतासागर जी आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य वर्ष में छह ऋतुयें हैं। जिनमें वर्षा, शीत और ग्रीष्म । करने के लिए सर्वोत्तम है। वैसे भी भारतीय संस्कृति में यह तीन मुख्य ऋतुयें हैं। इन तीनों ऋतुओं में प्राकृतिक | सभी परम्पराओं में यह श्रावण और भादों का महीना रूप से वर्षा, शीत और ग्रीष्मऋतु की तीक्ष्णता रहती है। विशिष्ट पर्व त्योहारों से भरा हआ है अतः इन दिनों हर वर्षाऋतु श्रावण और भाद्रमास की रहती है जिसमें जलवृष्टि | तरफ अलग ही उल्लास का वातवरण दिखता है। साथ बहुतायत रहती है। वर्षा के कारण अनगिनत सूक्ष्म-स्थूल | ही व्यवसाय की मन्दता और विवाहादि गार्हस्थिक कार्यो जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। कीचड़ और हरियाली से | का अभाव भी रहता है इसलिए भी भक्ति, पूजा और मार्ग व्याप्त हो जाता है। नदी नाले पानी से भर जाते हैं। | स्वाध्याय, प्रवचन आदि का धर्मलाभ निराकुलता से लेते आवागमन के मार्ग प्रासक और निरापद/निराकल नहीं रह | हैं। वैसे भी भारत के अतीतयुग में वर्षा के चार महीनों पाते। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही अहिंसा के में विशेष प्रयोजन के बिना देशान्तर गमन स्थगित रहता पालक करुणावान् सम्यक्चारित्री साधुजन एक जगह रुककर | था। राजाओं के युद्धप्रयाण एवं व्यापारियों के व्यवसाय अपना स्वाध्याय और आत्म-साधना करते हैं। जैनशास्त्रों | निमित्त से होने वाले देशान्तर गमन वर्षा के अन्त में ही के अनुसार मूलत: यह वर्षायोग दो माह का होता है किन्तु | होते थे। इसतरह से यह चातुर्मास का अवसर वर्षभर की मार्ग की प्रासुकता और नदी नालों के जलप्रवाह को थमने | धर्मप्रभावना का केन्द्र बिन्दु बन जाता है। इन दिनों में व्रत, में एक-डेढ़ माह और लग जाता है। अतः इस वर्षायोग | उपवास और पूजा, विधानादि के अनुष्ठान करके श्रावकको श्रमणपरम्परा में आषाढ़ सुदी चतुर्दशी से प्रारंभ कर | समाज धर्म की प्रभावना बढ़ाती है तो वहीं मुनिसंघों से कार्तिकवदी अमावस्या तक माना जाता है। इसी वर्षायोग | धर्म-देशना पाकर आहार, विचार, व्यवहार और व्यापार में को जनसामान्य चातुर्मास के नाम से जानते हैं । जिसे आषाढ़ | शुद्धता लाने का प्रयास भी करती है। मेरी समझ से चातुर्मास माह की अष्टान्हिका से कार्तिक माह की अष्टान्हिका | की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रहती है कि इन चार माहों अर्थात् चार माहों की समयावधि से लगाकर चातुर्मास शब्द | में आहार, विचार, व्यवहार और व्यापार की शुद्धि जुड़ का प्रयोग करते हैं। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप | जाती है। यही शुद्धता ही गृहस्थ के जीवन में चातुर्मास चतुर्विध संघ में मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि इन | वर्षायोग की सार्थकता प्रदान करती है। वास्तव में साधुसंघ दिनों किसी नगर, उपनगर ग्राम या तीर्थक्षेत्र आदि पर रुक के प्रवास का सच्चा लाभ तो यही है कि हमारे जीवन जाते हैं। साधु सन्तों के रुकने का यह एक दीर्घकालीन | में आमूलचूल परिवर्तन हो। हमारा जीवन रूपान्तरित हो। प्रवास रहता है। जिसमें त्यागी तपस्वी जनों को पठन-पाठन, | फिर हमें किसी से यह कहने की आवश्यकता न पड़े लेखन, स्वाध्याय, साधना आदि के लिए दीर्घकालीन समय | कि हमारे यहाँ मुनिसंघ का चातुर्मास हो रहा है बल्कि मिल जाता है और उनसे धर्मलाभ लेने के लिए श्रावक | आपके आचरण-व्यवहार को देखकर ही व्यक्ति आपोआप समाज को भी लम्बे प्रवास का अच्छा अवसर मिलता है। समझने लगे कि इनके नगर में मुनिसंघ विराजमान है। इसलिए इस वर्षायोग के लिए श्रावक और साधु उभयपक्षों | इन्होंने उनके सामीप्य / सेवा का लाभ सचमुच ही लिया की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। है। श्रावक समाज इन दिनों मुनि संघों की परिचर्या में कृषि कार्य करने वाला किसान जैसे अपनी आजीविका | सहायक बनकर अपनी सेवाभावना से धर्म की प्रभावना चलाने के लिए वर्षाकाल की प्रतीक्षा बड़ी आतुरता से करता | करती है। इसलिए तो वर्षाकाल के इस वातावरण को ध्यान है क्योंकि उससमय का उसका उद्यम ही उसके वर्षभर | में रखकर कबीरदास जी ने लिखा हैका प्रमुख आधार है, ठीक इसीतरह धर्मामृत पिपासु श्रावक | कबिरा बदली प्रेम की हमपे बरखा आई। और साधकजन इस वर्षायोग के लिये प्रतीक्षारत रहते हैं। अन्तर भीगी आत्मा हरी भरी वनराई॥ इसलिये कहा गया है कि यह समय कृषि और ऋषि कार्य प्रेम की बदली आने से जो वर्षा होती है उससे -सितम्बर 2007 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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